खुदी को ख़ुद से हरा कर ये लड़खड़ाते हैं,
अजीब लोग हैं मंज़िल से लौट आते हैं।
तुम्हारे इश्क़ के बारे में सब बताते हैं
मुझे ही लोग मेरी दास्ताँ सुनाते हैं
ख़िलाफ़ जो भी हमारे है उस से कह देना
चराग़ हम भी हवाओं में ही जलाते हैं
सजा के चहरे पे मुस्कान दिल में रख कर ग़म
ख़ुशी के गीत ज़माने को हम सुनाते हैं
सुना है क़द्र वो करता नहीं तुम्हारी अब
सुना है लोग जो बोते हैं वो ही पाते हैं
किसी ने अहद-ए-वफ़ा तर्क कर दिया तो क्या
कुछ ऐसे लोग भी हैं जो इसे निभाते हैं
फ़क़त ख़ुशी ही मना कर के हम नहीं रुकते
हम अहल-ए-हर्फ़ हैं हम दर्द भी मनाते हैं
अभी भी अपनी किताबों के पिछले पन्ने पर
तुम्हारे नाम को लिखते हैं फिर मिटाते हैं
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