कभी उसको हम अपनी रूह का पैकर समझते थे
बहुत नादान थे मक़्तल को अपना घर समझते थे
बड़े बेजान होकर दफ़्न हैं दिल में कहीं पर अब
वही वादे जिन्हें हम जान से बढ़कर समझते थे
मोहब्बत से बचा कर ख़ुद को चलते थे हमेशा हम
मोहब्बत को हम अपनी राह की ठोकर समझते थे
किसी पत्थर से बढ़कर और तो कुछ भी नहीं था वो
वही इक शख़्स जिसको हम कभी गौहर समझते थे
उसी ने क़ाफ़िला लूटा हमारा कूच से पहले
जिसे कुछ लोग अपने मुल्क का रहबर समझते थे
हमें ये ज़ख़्म हर उस शख़्स ने आकर लगाए हैं
जिसे हम मुस्कुराता देख बे-ख़ंजर समझते थे
मिलाया था ज़हर उसने शहर भर की हवाओं में
शहर के लोग जिसको एक चारागर समझते थे
न अब वो है न अब मैं हूँ मगर इक रंज बाकी है
के हम उस शख़्स को ख़ुद से कभी बेहतर समझते थे
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