इक कहानी के किसी किरदार में उलझा हूँ मैं
ख़ुद मुझे ही ये नहीं मालूम के क्या क्या हूँ मैं
वो मुझे कह कर गया था फिर मिलेंगे हम यहीं
उसकी खातिर इस शहर में आज भी ठहरा हूँ मैं
भेजता रहता हूँ कुछ गुमनाम ख़त उनके लिए
इस तरह बेचैन उनको रात भर रखता हूँ मैं
मैं बहस करता रहा और वो मुझे तकते रहे
ज़िंदगी में इस तरह भी कुछ बहस हारा हूँ मैं
ये मोहब्बत है या उनको है मुझे खोने का डर
वो मुझे कहते हैं उनको हर जगह दिखता हूँ मैं
वक्त जब अपना नहीं तो फिर कोई अपना नहीं
ज़िंदगी की इस पढ़ाई में यही समझा हूँ मैं
हूँ किसी को ख़ास तो मैं हूँ किसी को आम सा
देखने वाले की जैसी है नज़र वैसा हूँ मैं
ज़िंदगी में यूँ फ़साने तो बुनोगे और भी
हाँ मगर जो ना भुला पाओगे वो क़िस्सा हूँ मैं
गर किसी से फेर कर नज़रें मैं आगे बढ़ गया
लाख़ वो आवाज़ दे मुझको नहीं मुड़ता हूँ मैं
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