धूल में खो चुका ज़र्रा हूँ मैं
तुम समंदर हो, तो क़तरा हूँ मैं
झूट के बल न चलाओ रिश्ते
झूट से ठग के ही बिखरा हूँ मैं
धोकों ने बदली है फ़ितरत मेरी
हर ग़लत के लिए ख़तरा हूँ मैं
फ़िक्र दुनिया की न है अब कोई
सहता कोई भी न नख़रा हूँ मैं
अपने ग़म ढाल बनाए मैंने
तब कहीं जाके तो उभरा हूँ मैं
छोड़ के मोह किया मन कुंदन
पढ़ के गीता ही तो निखरा हूँ मैं
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