"तरक्क़ी"
आज चले है सब उसी सड़क के किनारे किनारे
सदियों से जिन पे कोई राहगीर चला ही नहीं था
कितने बाग उजाड़ दिए गए तरक्की के नाम पर
जैसे कभी कोई फूल वहाँ पर खिला ही नहीं था
अब सब लोग पूछते है हमारा नाम पता शहर में
जैसे आज से पहले मेरा पता मिला ही नहीं था
गांव लौट कर उन घरों में भी रह रहे आज सभी
बरसो से जिन घरों का किवाड़ खुला ही नहीं था
मैंने देखा है कई ऐसे घरों को भी गुज़ारा करते
जिनके अपना कोई पक्का चूल्हा ही नहीं था
हमारा बचपन भी ऐसी जगह गुज़रा है आज़ाद
जिस घर में तफरीह को कोई झूला ही नहीं था
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