Rafiq Khawar Jaskani

Rafiq Khawar Jaskani

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Rafiq Khawar Jaskani shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Rafiq Khawar Jaskani's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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दर्द-ओ-ग़म ज़माने के और एक जी तन्हा
आँधियों में जलती है शम-ए-ज़िंदगी तन्हा

अपनी अपनी राहें हैं अपनी अपनी मंज़िल है
कार-गाह-ए-हस्ती में रहते हैं सभी तन्हा

शब से दाग़-ए-हिज्राँ का वास्ता अजब शय है
तेरी दिलकशी तन्हा मेरी बेकली तन्हा

हाए उस ज़माने में अहल-ए-फ़न की बे-क़दरी
मौसम-ए-ज़मिस्ताँ में जैसे चाँदनी तन्हा

जाने दिल की धड़कन में क्या फ़रेब होता है
तुझ से बात करते हैं हम कभी कभी तन्हा

रहगुज़र पे सजती है अपनी बज़्म-ए-तन्हाई
तेरी नक़्श-ए-पा तन्हा मेरी बे-ख़ुदी तन्हा

हुस्न-ओ-इश्क़ की तक़दीर इक तज़ाद बाहम है
उन की शाम भी महफ़िल अपनी सुब्ह भी तन्हा

कौन किस की सुनता है ऐसे दौर में 'ख़ावर'
हम ने दूर छेड़ी है ग़म की रागनी तन्हा
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Rafiq Khawar Jaskani
मुद्दत हुई ख़मोशी-ए-इज़हार-ए-हाल को
आब-ए-सदा ही दीजिए दश्त-ए-ख़याल को

फिर एक शाख़-ए-ज़र्द गिरी ख़ाक हो गई
फिर बर्ग-ए-नौ मिले शजर-ए-माह-ओ-साल को

झोंका ये किस के लम्स-ए-गुरेज़ाँ की तरह था
अब हल ही करते रहिए हवा के सवाल को

हम-रंग-ए-माह-ताब था वो इस में खो गया
अब कितनी दूर फेंकिए नज़रों के जाल को

शब भर हवा के रंग बदलते रहे नए
मैं देखता रहा सफ़र-ए-बर-शगाल को

जाएगा ख़ून-ए-शब न किसी तौर राएगाँ
मुँह पर मलेगी सुब्ह शफ़क़ के गुलाल को

जचते नहीं निगाह में ख़ुशियों के आफ़्ताब
दिल ढूँढता है किस ग़म-ए-ज़ोहरा-ए-जमाल को

इंसानियत के दर्द की आवाज़ बन सके
सोज़-ए-नवा से सींचिए ज़ख़्म-ए-ख़याल को

दीजे फिर आब-ए-दीदा-ए-तर से हयात-ए-नौ
फ़न्न-ओ-अदब के सब्ज़ा-ए-नौ-पाएमाल को
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Rafiq Khawar Jaskani
रात बेज़ार सा घर से जो मैं तन्हा निकला
चाँद भी जैसे मेरे ग़म का शनासा निकला

सर-ब-सर डूब गया रात के सन्नाटे में
चाँदनी जिस को मैं समझा था वो दरिया निकला

दूर से आई गली में कहीं क़दमों की सदा
अपना घर छोड़ के मुझ सा कोई तन्हा निकला

सोई थी चाँदनी पत्तों से ढकी सड़कों पर
एक झोंका सर-ए-शब ख़ाक उड़ाता निकला

सामने घर के तिरे कोई खड़ा था जैसे
वहम अपना तिरी दीवार का साया निकला

चाँदनी राह-ए-मुलाक़ात में दीवार बनी
चाँद भी जैसे तिरा चाहने वाला निकला

रात के मोड़ पे कौन आइना-बरदार मिला
जिस को समझा था तिरी याद ज़माना निकला

रात भर मौज-ए-हवा से तिरी ख़ुश्बू आई
चाँद-तारों में तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा निकला

इस भरे शहर में हम चाक-ए-गरेबाँ ठहरे
जिस को देखा वही सरगर्म-ए-तमाशा निकला

हम तो इस दिल ही को समझे थे बयाबाँ 'ख़ावर'
चाँद भी दूर तक इक रंग का सहरा निकला
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Rafiq Khawar Jaskani
ख़िज़ाँ के ज़ख़्म हवा की महक से भरने लगे
निगार-ए-गुल के ख़द-ओ-ख़ाल फिर निखरने लगे

ये सूखे सहमे शजर देख मार्च आने पर
तेरे बदन की तरह शाख़ शाख़ भरने लगे

ग़म-ए-हयात फिर आने लगी सदा-ए-जरस
दयार-ए-शब से तिरे क़ाफ़िले गुज़रने लगे

उदास रात के दरवाज़े वा हैं जैसे अभी
दर-ए-निगाह से दिल में कोई उतरने लगे

सराब-ए-दश्त-ए-तमन्ना से कौन गुज़रा है
कि चश्मा-ए-ग़म-ए-दिल बूँद बूँद झरने लगे

ये झिलमिलाते सितारे ये ज़ख़्म-ए-सीना-ए-शब
उफ़ुक़ के पहले उजाले से जैसे भरने लगे

नुजूम-ए-शब की ज़बाँ पर है गुफ़्ता-ए-'इक़बाल'
वो फिर से आदम-ए-ख़ाकी की बात करने लगे

ज़मीं से दूर भी अब नक़्श-ए-पा-ए-इंसाँ से
कई जहान ख़ला में नए उभरने लगे

वो अब्र-ए-राह-गुज़र की तहों में डूबा चाँद
हवा चले तो अभी तैर कर उभरने लगे

है उस के अक्स की तज्सीम मेरे फ़न से वरा
वो आइने कि सदा की तरह बिखरने लगे

वो अब्र हो कि धनक हो कोई तो हो 'ख़ावर'
फ़ज़ा के शाने पे जो ज़ुल्फ़ सा सँवरने लगे
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Rafiq Khawar Jaskani
ख़ला की मंज़िल-ए-पायाब का पता भी मैं
और अपने आप में इक बे-कराँ ख़ला भी मैं

फ़ज़ा के सीने में बेताब शोरिशें मुझ से
दिल-ए-वजूद की इक आह-ए-ना-रसा भी मैं

मैं अपनी शाख़-ए-ख़मीदा का बर्ग-ए-शोरीदा
शजर का जिस्म भी मैं जिस्म से जुदा भी मैं

तिरे वजूद के इदराक तक पहुँचती हुई
यक़ीं की गूँज भी मैं वहम की हवा भी मैं

मुझी से फ़िक्र-ओ-नज़र के सनम-कदे रौशन
और अपने आप को अब तक न पा सका भी मैं

जमाल-ए-सुब्ह-ए-सुकूँ शाम-ए-इज़्तिराब का रंग
सुकूत-ए-ज़र्द भी मैं सुर्ख़ी-ए-सदा भी मैं

वरा-ए-फ़हम है मेरे तज़ाद का आलम
कि नोक-ए-ख़ार भी मैं और बरहना-पा भी मैं

मिरे सितम की ख़राशें मिरे ही चेहरे पर
अवध की शाम भी मैं और हीरोशीमा भी मैं

मिरे जुनूँ के करिश्मे मिरी रिया के तिलिस्म
कि वियतनाम भी मैं और जेनेवा भी मैं

ब-क़ौल-ए-शाइर-ए-मशरिक़ मैं अपना क़ातिल-ए-जाँ
हवा-ए-तुंद भी मैं बर्ग-ए-बे-नवा भी मैं

ज़वाल-ए-आदम-ए-ख़ाकी की इब्तिदा मुझ से
और उस की अज़्मत-ए-पैहम का इर्तिक़ा भी मैं

मुझी को छू न सकी 'डार्विन' की हद्द-ए-गुमाँ
और आज ख़ल्वत-ए-महताब तक रसा भी मैं

मुझे तो जैसे वो अन-देखा रास्ता न लगा
ख़ला के जादा-ए-मानूस पर चला भी मैं

फ़ना की मौज मिरी रूह के मकाँ से ख़जिल
असीर-ए-वक़्त भी मैं वक़्त से वरा भी मैं

हिसार-ए-जिस्म के दीवार-ओ-बाम में महबूस
हुदूद-ए-कौन-ओ-मकाँ से गुज़र गया भी मैं

गदा-ए-नुत्क़ भी मैं ख़ालिक़-ए-अज़ल के हुज़ूर
और अपने दर्द की आवाज़ का ख़ुदा भी मैं

मिरे शरारा-ए-फ़न से है रौशनी हर सू
और अपने शो'ला-ए-एहसास में जला भी मैं

ज़बान-ए-हर्फ़ की सेहर-आफ़रीनियाँ मुझ से
लब-ए-ख़याल की तक़रीर-ए-बे-सदा भी मैं

मैं उस की सोच का इक शाहकार भी 'ख़ावर'
और उस के शौक़ का दिलचस्प हादसा भी मैं
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Rafiq Khawar Jaskani
बिखरा के हम ग़ुबार सा वहम-ओ-ख़याल पर
पत्तों की तरह डोलते फिरते हैं माल पर

अपने ही पाँव बस में नहीं और यार लोग
तन्क़ीद कर रहे हैं सितारों की चाल पर

ये माल आँचलों का सुबुकसार आबशार
सद-मौज-ए-रंग-ओ-नूर है लम्हों की फ़ाल पर

बहते हुजूम शाम के लम्हों का सैल हम
रक़्साँ हैं ज़ेहन झूमते क़दमों के ताल पर

उलझे हुए हैं बहस में वारफ़्तगान-ए-शाम
है गुफ़्तुगू अदब के उरूज-ओ-ज़वाल पर

तय राह-गुज़ार-ए-पा है न मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू
व्हिस्की के धुँदलके हैं जवाब-ओ-सवाल पर

'ग़ालिब' का ज़िक्र था अभी 'शेली' पर आ गए
पहुँचे 'मलारमे' से जलाल-ओ-जमाल पर

झोंकों के साथ साथ कोई ताएर-ए-ख़याल
आ बैठता है ज़ेहन की शादाब डाल पर

गर्द-ए-सफ़र से प्यार है मंज़िल का ग़म नहीं
यूँ चल रहे हैं रहगुज़र-ए-माह-ओ-साल पर

छाए हुए हैं सोच के साए कहीं कहीं
छिटकी हुई है चाँदनी बाम-ए-ख़याल पर

हर साया अपनी अपनी गुफा में लुढ़क गया
हम लोग घूमते रहे सुनसान माल पर
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Rafiq Khawar Jaskani
फिर तेज़ हवा चलते ही बे-कल हुईं शाख़ें
किस दर्द के एहसास से बोझल हुईं शाख़ें

क्या सोच के रक़्साँ हैं सर-ए-शाम खुले सर
किस काहिश-ए-बे-नाम से पागल हुईं शाख़ें

गिरते हुए पत्तों की तड़पती हुई लाशें
सद-तनतना-ए-ज़ीस्त का मक़्तल हुईं शाख़ें

तरसी हुई बाहें हैं हुमकते हुए आग़ोश
दीवानगी-ए-शौक़ का सिंबल हुईं शाख़ें

फिर रात के अश्कों से फ़ज़ा भीग चली है
फिर ओस की बरसात से शीतल हुईं शाख़ें

झोंके हैं कि शहनाई के सुर जाग रहे हैं
इक नग़्मा-गर-ए-नाज़ की पायल हुईं शाख़ें

बरगद का तना एक सदी उम्र-ए-रवाँ की
साए हैं मह-ओ-साल तो पल पल हुईं शाख़ें

हर डाल पे इक टूटती अंगड़ाई का आलम
शब-भर जो हवा तेज़ रही शल हुईं शाख़ें

जाता हुआ महताब जो दम-भर को रुका है
इक महवश-ए-तन्नाज़ का आँचल हुईं शाख़ें

जब डूब गया ग़म के उफ़ुक़ में दिल-ए-तन्हा
महताब से दूर आँख से ओझल हुईं शाख़ें
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Rafiq Khawar Jaskani
रात के साँस की महकार से सरशार हवा
जागते शहर सुला देती है बेदार हवा

हो के सैराब ख़म-ए-शब से सर-ए-दामन-ए-गुल
सूरत-ए-अब्र बरस जाती है मय-ख़्वार हवा

जाने किस तरह ख़लाओं में धनक बनती है
चाँद की रंग भरी झील के उस पार हवा

तालिब-ए-मौज-ए-सहर जाती है लहरों पे सवार
साहिल-ए-शब से उठाती है जो पतवार हवा

कितनी यादें हैं कि झोंकों की तरह तैरती हैं
छोड़ आती है सफ़र में जिन्हें मंजधार हवा

सर खुले ख़ाक उड़ाती हुई आँगन आँगन
रात के दर्द का कर जाती है इज़हार हवा

चाँद के रस में बुझे लम्हों की तन्हाई में
ज़हर-ए-हिज्राँ में है डूबी हुई तलवार हवा

कितने लम्हे थे कि अश्कों की तरह बरसे थे
रात गुज़री थी जो गाती हुई मल्हार हवा

ज़र्द शाख़ों की पतावर में उठाती हुई हश्र
'कीट्स' की नज़्म का जैसे कोई किरदार हवा

वो तिरी झूमती ज़ुल्फ़ों का घना जंगल है
भूल जाती है जहाँ शोख़ी-ए-रफ़्तार हवा

आसमाँ पर सफ़र-ए-मौज-ए-सहर से पहले
रोज़ उठा देती है इक रंग की दीवार हवा
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Rafiq Khawar Jaskani