Ali Minai

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Ali Minai shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Ali Minai's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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नक़्श-बर-आब थी जो दाम-ओ-दिरम ने बख़्शी
ज़ीस्त को दौलत-ए-नायाब तो ग़म ने बख़्शी

अहल-ए-दस्तार न अर्बाब-ए-करम ने बख़्शी
इज़्ज़त-ए-नफ़्स मुझे लौह-ओ-क़लम ने बख़्शी

आब्यारी न हुई आब-ए-गुहर से उस की
नख़ल-ए-इरफ़ां को नुमू दीदा-ए-नम ने बख़्शी

वर्ना क्या उन में था इक जज़्बा-ए-हैराँ के सिवा
तेरी आँखों को ये गोयाई तो हम ने बख़्शी

उम्र भर हम को मयस्सर रही बेताबी-ए-दिल
जो ख़ुदा ने नहीं बख़्शी वो सनम ने बख़्शी

जिस ने पामर्द रखा हम को सितमगर के ख़िलाफ़
वो अज़ीमत हमें ख़ुद उस के सितम ने बख़्शी

कितनी बे-फ़ैज़ विरासत है वो तारीख़-ए-ज़ियाँ
जो हमें चपक़ुलश-ए-दैर-ओ-हरम ने बख़्शी

हर्फ़-ए-ताज़ी से भी पाया है बहुत फ़ैज़ मगर
मेरे इज़हार को लय साज़-ए-अजम ने बख़्शी
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Ali Minai
उठा न पर्दा-ए-हैरत रुख़-निहां से अभी
मिरे यक़ीन को फ़ुर्सत नहीं गुमाँ से अभी

न खोल मुझ पे पुर-असरार ज़ुल्मतों के तिलिस्म
बहल रही है नज़र माह-ओ-कहकशाँ से अभी

सुना न ज़मज़मा-ए-रूह-काएनात मुझे
कि आ रही है सदा मेरे साज़-ए-जाँ से अभी

अभी से दे न मुझे मंज़िल-ए-अदम का सुराग़
गुज़र रहा हूँ मैं हस्ती के इम्तिहाँ से अभी

दिखा न ख़्वाब किसी आलम-ए-दिगर के मुझे
कि मेरा दिल नहीं फ़ारिग़ इसी जहाँ से अभी

न कर हक़ीक़त-ए-हस्ती से आश्ना मुझ को
कि रब्त है मुझे इस वह्म-ए-राएगाँ से अभी

बना रहा हूँ ज़मीं पर सनम-कदे अपने
सदाएँ दे न मुझे बाम-ए-आसमाँ से अभी

मक़ाम-ए-होश भी मेरी नज़र में है लेकिन
सुबू है पुर मिरा सहबा-ए-अर्ग़वाँ से अभी

भड़क रहा है अभी शो'ला-ए-नफ़स मेरा
लपक रहे हैं शरारे मिरी ज़बाँ से अभी

है ज़र्रा ज़र्रा तपाँ दश्त-ए-आरज़ू का मिरे
उठेंगे और बगूले बहुत यहाँ से अभी

फ़ना क़ुबूल हो क्यूँकर मुझे कि रिश्ता-ए-दिल
बँधा हुआ है तमन्ना-ए-जाविदाँ से अभी
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Ali Minai
शब-ए-हयात में क़िंदील-ए-आरज़ू तिरा ग़म
सुकूत-ए-जाँ में फ़रोज़ाँ सदा-ए-हू तिरा ग़म

रम-ए-नफ़स में मचलती हुई सदा तिरा नाम
रग-ए-गुलू में सुलगता हुआ लहू तिरा ग़म

हरीम-ए-ज़ात में रौशन चराग़ के मानिंद
रियाज़-ए-शौक़ में नख़्ल-ए-सुबुक-नुमू तिरा ग़म

मिरे शुऊ'र के ज़िंदाँ में इक दरीचा-ए-नूर
मरे वजूद के सहरा में आब-जू तिरा ग़म

लगन कोई भी हो उन्वान-ए-जुस्तुजू तिरा हुस्न
सुख़न किसी से हो मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू तिरा ग़म

सुरूर-ओ-कैफ़ की सब महफ़िलों में देख लिया
कहीं शराब तिरा ग़म कहीं सुबू तिरा ग़म

ख़याल-ओ-फ़िक्र के सब मकतबों में पूछ लिया
मताअ'-ए-दानिश-ओ-तहक़ीक़-ओ-जुस्तजू तिरा ग़म

समा-ओ-सोज़ की सब मजलिसों में ढूँड लिया
मआल-ए-ज़िक्र-ओ-मुनाजात-ओ-हा-ओ-हू तिरा ग़म

हरम में हिर्ज़-ए-दिल-ओ-जान-ए-क़ुदसियाँ तिरा नाम
सनम-कदे में बरहमन की आरज़ू तिरा ग़म

सुकून-ए-क़ल्ब जो सोचा तो सर-बसर तिरी याद
नशात-ए-ज़ीस्त को देखा तो हू-बहू तिरा ग़म

ग़म-ए-जहाँ ग़म-ए-जानाँ ग़म-ए-दिगर ग़म-ए-ख़्वेश
जहान-ए-ग़म में हर इक ग़म की आबरू तिरा ग़म

हर एक रंज से गुज़रे हर इक ख़ुशी से गए
लिए फिरा जिन्हें इक उम्र कू-बकू तिरा ग़म

रही न कोई भी हसरत कि रख दिया मैं ने
हर एक जज़बा-ए-दिलकश के रू-ब-रू तिरा ग़म
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Ali Minai
न तेरी याद न वो लुतफ़-ए-आह-ए-नीम-शबी
दिल-ओ-दिमाग़ हुए वक़्फ़-ए-रंज-ए-बे-सबबी

तिरे करम ने किया ये भी इक सितम हम पर
कि चश्म-ए-शौक़ ने सीखी न मुद्दआ-तलबी

ग़म-ए-नशात के मारों को कौन समझाए
ख़ुमार-ए-मय से है बढ़ कर सुरूर-ए-तिश्ना-लबी

वो ख़ाना-ज़ाद-ए-बहाराँ है उस को ज़ेबा है
गुलाब-पैरहनी गुल-रुख़ी-ओ-ग़ुन्चा-लबी

हवस में इक सुख़न राएगाँ की वो भी गया
मताअ-ए-ग़ुंचा था जो इज़्तिराब-ए-जाँ बलबी

कोई नज़र नहीं शाइस्ता-ए-सुख़न वर्ना
वही है चश्म-ए-फ़ुसूँ-गर की गुफ़्तुगू-तलबी

मिरा वजूद सही एक मुश्त-ए-ख़ाक मगर
है ज़र्रे ज़र्रे में ए'लान-ए-कहकशाँ-नसबी

ख़िरद हिजाब-ए-हक़ीक़त उठा तो दे लेकिन
अभी जुनूँ को गवारा नहीं ये बे-अदबी

हवा-ए-ज़र से हुआ कम न हब्स-ए-जाँ हरगिज़
मिटी न आब-ए-गुहर से किसी की तिश्ना-लबी

यक़ीं तो क्या मिरे वहम-ओ-गुमाँ लरज़ उट्ठे
निगार-ख़ाना-ए-फ़ितरत में थी वो बुल-अजबी

निगाह-ए-यार थी माइल-ब-दर-गुज़र लेकिन
हमीं रहे न अदब-आश्ना-ए-बे-अदबी

तमाम शहर पे बैठी है इस के इल्म की धाक
कि बोलता है वो उर्दू ब-लहजा-ए-अरबी

ख़ुदा का फ़ज़्ल है और फ़ैज़-ए-साक़ी-ए-शीराज़
कि मेरे शे'र में है कैफ़-ए-बादा-ए-इनबी
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Ali Minai
शैख़-ओ-वाइज़ को ख़ुदारा हम-नशीं मत कीजिए
काम जो शायान-ए-अहल-ए-दिल नहीं मत कीजिए

देखिए बस ये कि इज़्न-ए-चश्म-ए-जानाना है किया
इश्क़ है तो इम्तियाज़-ए-कुफ़्र-ओ-दीं मत कीजिए

डाल दें जो दिल के दरवाज़ों पे बे-मेहरी के क़ुफ़्ल
जी में ऐसी आरज़ूओं को मकीं मत कीजिए

ज़ेहन में ज़ौक़-ए-गुमाँ की भी न गुंजाइश रहे
इस क़दर तौहीन-ए-आदाब-ए-यक़ीं मत कीजिए

शौक़ से हो लीजिए अहल-ए-जुनूँ के साथ साथ
हाँ मगर फिर फ़िक्र-ए-जेब-ओ-आस्तीं मत कीजिए

है लगन तो कीजिए सहरा-नवर्दी मिस्ल-ए-क़ैस
सिर्फ़ ज़िक्र-ए-लैला-ए-महमिल-नशीं मत कीजिए

दश्त में खो जाइए जंगल में जा बसिये मगर
रूह को बहर-ए-ख़ुदा उज़्लत-गुज़ीं मत कीजिए

मुस्कुरा कर टाल दीजे दाद-ख़्वाह-ए-शौक़ को
हाँ अगर मुमकिन नहीं है तो नहीं मत कीजिए

लुत्फ़ का तालिब है माल-ओ-ज़र का सौदाई नहीं
अपने साइल पर निगाह-ए-ख़श्म-गीं मत कीजिए

इश्क़ के बारे में ना-महरम जो कहते हैं कहीं
ख़ंदा-पेशानी से सुन लीजे यक़ीं मत कीजिए
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Ali Minai
ख़याल-ओ-ख़्वाब के पैकर बदलते रहते हैं
दिल आइना हो तो मंज़र बदलते रहते हैं

हमारे हाल से मत कर क़यास-ए-नाकामी
कि सर-फिरों के मुक़द्दर बदलते रहते हैं

उलझ न जाए कहीं बाम-ओ-दर में रिश्ता-ए-ज़ीस्त
इस एहतिमाल से हम घर बदलते रहते हैं

हर इल्तिफ़ात है ताज़ा जराहतों की नवीद
कि चारागर मिरे नश्तर बदलते रहते हैं

भला यक़ीं को मयस्सर है कब गुमाँ से नजात
कि साहिलों को समुंदर बदलते रहते हैं

असास-ए-मेहर-ओ-मोहब्बत नहीं बदलती कभी
अगरचे लोग बराबर बदलते रहते हैं

वही है आज जो कल थी सज़ा-ए-हक़-गोई
सुतून-ए-दार पे हाँ सर बदलते रहते हैं

मिरे वतन की बहुत मुख़्तसर सी है तारीख़
सितम वही है सितमगर बदलते रहते हैं

वही है जल्वा-ए-जानाना दैर हो कि हरम
शराब एक है साग़र बदलते रहते हैं
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Ali Minai
शहर-ए-जाँ पर जो तिरी याद का लश्कर टूटा
एक हमले में हिसार-ए-दिल-ए-ख़ुद-सर टूटा

जैसे इक बर्क़ सी लहराई पस-ए-पर्दा-ए-अब्र
जैसे इक चाँद सर-ए-शाख़-ए-सनोबर टूटा

आ गया ता ब गिरेबान-ए-शफ़क़ दस्त-ए-सहाब
बाम-ए-अफ़्लाक पे नाहीद का महवर टूटा

मेरे साग़र में उतर आया किसी शाम का अक्स
मेरी आँखों में किसी हुस्न का नश्तर टूटा

दिल की गहराई में फिर जाग उठा शो'ला-ए-दर्द
मुंजमिद था जो मिरे ग़म का समुंदर टूटा

दश्त-ए-अय्याम से लौटी किसी एहसास की गूँज
मा'बद-ए-जाँ में किसी वहम का पैकर टूटा

फिर पुर-असरार यका यक हुई ख़ामोशी-ए-शब
फिर कोई जाम किसी हाथ से गिर कर टूटा

कासनी धूप के आँसू मिरी आँखों से बहे
जैसे इक महर-ए-दरख़्शाँ मिरे अंदर टूटा

ग़ुल मचाते हुए रंगों के परिंदे निकले
संग-ए-हैरत से जब आईना-ए-मंज़र टूटा

गुम्बद-ए-गोश में गूँजी फिर इक आवाज़-ए-शिकस्त
क्या ख़बर ये मिरा दिल टूटा कि साग़र टूटा
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Ali Minai
लहू में अपने सर-ए-शाम जल बुझा सूरज
इक इस्तिआ'रा मिरी आरज़ू का था सूरज

है उम्र-भर की रिफ़ाक़त मगर मिरे ग़म से
न आश्ना हैं सितारे न आश्ना सूरज

इक ऐसा दौर भी गुज़रा तिरी लगन में कि जब
मिरी जबीं पे सितारे थे ज़ेर-ए-पा सूरज

ये मुझ को कैसे अँधेरों में ला के छोड़ गया
मिरे जहान-ए-तरब का गुरेज़ पा सूरज

सुना है आइने सूरज के हैं मह-ओ-पर्वीं
मैं सोचता हूँ कि है किस का आइना सूरज

हमारे अह्द में मिन-जुमला-ए-नुजूम सही
रहा है अपने ज़माने में देवता सूरज

शब-ए-सियह की पुर-असरार कार-गाहों में
सहर तराश रही है कोई नया सूरज

हर एक ज़र्रे में है बाज़-गश्त-ए-नूर-ए-अज़ल
ज़मीं की ख़ाक में ज़म हैं हज़ार-हा सूरज
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Ali Minai
बशर की ख़ू में सलामत रवी नहीं शायद
मिटे ये नस्ल तो आसूदा हो ज़मीं शायद

हूँ अपने ज़ह्न की तारीकियों में सरगर्दां
सुना है ये कि ख़ुदा है यहीं कहीं शायद

मिरे ख़याल के ख़ल्वत-कदे हैं दैर-ओ-हरम
मिरे मिज़ाज के मौसम हैं कुफ़्र-ओ-दीं शायद

मैं उस को देखूँगा लेकिन इक और आलम में
मैं उस को पाऊँगा लेकिन अभी नहीं शायद

मैं छोड़ आया मसाइल के जिस जहन्नुम को
मिरे नसीब की जन्नत भी थी वहीं शायद

उठी वो आँख तो दिल का सुराग़ भी न मिला
हिरन से हार गया ये सुबुकतगीं शायद

अदू भी दोस्त भी सब हम पे मेहरबाँ थे बहुत
कुछ अपने आप से बरगश्ता थे हमीं शायद

हर एक हाथ में ख़ंजर दिखाई देता है
उलट रही है ज़माने की आस्तीं शायद
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Ali Minai
ज़ेर-ए-ज़मीं उतर गए या सर-ए-आसमाँ गए
पेश-रवान-ए-राह-ए-ज़ीस्त कौन कहे कहाँ गए

कोई रहा न आस पास ऐ दिल-ए-दोस्त-ना-शनास
छोड़ के तुझ को महव-ए-यास सब तिरे मेहरबाँ गए

अर्सा-ए-आरज़ू में थीं यूँ तो हज़ार वुसअ'तें
तेरे क़रीब ही रहे अहल-ए-वफ़ा जहाँ गए

होश के मरहलों में इक मरहला-ए-जुनूँ भी था
वादी-ए-वह्म से सभी फ़िक्र के कारवाँ गए

जब भी हवा-ए-दश्त ने अहल-ए-जुनूँ को दी सदा
मौज-ए-शमीम-ए-गुल के साथ हम भी कशाँ कशाँ गए

कैसे वो लोग थे जिन्हें बे-ख़बरी क़ुबूल थी
हम तो जुनून-ए-आगही ले के गए जहाँ गए

अहद-ए-जुनूँ के मश्ग़ले वक़्त ने सब बदल दिए
शौक़ की लग़्ज़िशें गईं ज़ब्त के इम्तिहाँ गए

आख़िर-ए-कार ख़ामुशी ही से खुले दिलों के राज़
हर्फ़-ए-सुख़न ज़बाँ पे जो आए थे राएगाँ गए

होश की जुरअतें तमाम हद्द-ए-यक़ीं पे रुक गईं
ख़ल्वत-ए-नाज़ तक तिरी सिर्फ़ मिरे गुमाँ गए

ज़ह्न की चोब-ए-ख़ुश्क को फूँक गई सुख़न की आँच
दूद-ए-नवा के दाएरे जाने कहाँ कहाँ गए
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