एक बुनियादी सवाल अक्सर उठता रहता है कि शाइरी में दिल का ज़्यादा दख़्ल है या दिमाग़ का? और दोनों का है तो कितना दिल का और कितना दिमाग़ का? दुनिया अल्फ़ाज़ों में कहें तो क्या ज़ेहनी कुश्ती करके यानी बुनियादी नियम सीखकर क्या कोई मीर ओ गालिब़ बनने का दावा कर सकता है? या इसके लिए इसके लिए दिल में सोज़ और ना सुबूरी की ज़रूरत रहती है? अल्लामा इक़बाल का शेर ज़ेहन में आता है। 


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दिल का दख़्ल कितना है? 


दिल का दख़्ल बज़ाहिर ही शाइरी पर पड़ता है। इक़बाल तो कह रहे हैं कि दिल में अगर जुनून और शौक़ न हो तो वो कैसा दिल है और फिर उस दिल के मालिक में बेबाकी नहीं होगी। शाइरी और हर उस सिन्फ़ में बेबाकी बहुत ज़रूरी शर्त है। शाइरी में मन और ज़ेहन की कैफियत ज़ाहिरी तौर पर तब ही दिख सकती है जब इंसान दिल की सतह से ईमानदार हो व सिर्फ अपने आप से बल्कि अपने रिश्तों में भी और अपने जीवन में भी। एक अंदरूनी ईमानदारी तो चाहिए! सिवाय इस बात के दिल का दख़्ल शाइरी पर जितना कम हो उतना बेहतर मीना जाता है। ये एक ज़रूरी शर्त है कि शाइर शाइरी के craft से कभी समझौता न करे। शाइरी करने का सबब catharsis नहीं होना चाहिए बल्कि शाइरी शाइरी करने के लिए होनी चाहिए! Art for the art sake! 


कुछ शेर यहाँ दिए गये हैं जो आपको craft की आला सतह की मिसाल देंगे और उनमें गहरे एहसासात की तर्जुमानी भी बख़ूबी दिखती है।


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शाइरी : एक दिमाग़ी कुश्ती 


अब ये तो ज़ाहिर ही है कि दिमाग़ का ही काम है कि वो आलातरीन शेर कहलवाए। इस मामले में ग़ालिब का शेर ज़ेहन में आता है। 


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ग़ालिब कह रहे हैं कि ये जो खयाल हैं जिन्हें शाइरी में ढालने के लिए सिन्फ़ दरकार होती है, वो तो एक अन्जान जगह से आते हैं। यानी कि ग़ालिब और ग़ालिब की तरह हर एक शाइर की कलम की आवाज़ में divine sound है। ग़ालिब और हर शाइर को अपने कलाम को mystical बनावे का शौक़ है कहा जा सकता है। पर अगर हम ध्यान दें तो वो अन्जान जगह और कोई नहीं बल्कि हमारा subconscious मन है। अब ये मानते हुए कि हममें से कोई भी इस लफ़्ज़ के माअनी सही तरीके से नही जानता, एक मिसाल पेश है। मान लिया जाए कि आप एक ग़ज़ल कह रहे हैं। मान लेते हैं आपने मतला बखूबी कह लिया। अब आपके पास मीटर, काफ़िया और रदीफ़ तय हो गई। अब आप कोशिश में हैं कि अगला मिसरा कहा जाए और काफ़ियापैमायी हो सके। ये सारा काम एक ज़ेहनी पशोपेश है, पर इस मामले में जिस मज़मून पर शेर कहा जा रहा है, वो कहाँ से आ रहा है? वो आपके एहसासात, आपके खयालात और आपके तजुर्बे का ही अक्स है जो आपके शेर में बयान हो रहा है। ये एक lie detector की तरह है। आप अगर ईमानदार शाइर हैं तो आप अपने अशआर से बच नहीं पाएंगे। आपका सच शेर में आना तय है। इस तरीके से जाने अनजाने चाहे अनचाहे शाइरी दरअसल ज़मीर को साफ़ करने का एक तरीका बनकर सामने आती है। आप यहाँ कुछ अशआर देखें! 


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आप यहाँ शाइरों को शाइरी को personal levels तक ले जाते महसूस कर सकते हैं। ये मज़ामीन का subconscious से आना ही तो है।


छोटी छोटी बातें जो शाइरी को आम से खास बनाती हैं! 


एक शेर देखें..... 


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आपको भी पता चल गया होगा कि यहाँ इस शेर की मिसाल का क्या सबब है। इस शेर की खासियत ही इसी बात में है कि पूरे में एक अल्फाज़ को छोड़कर बाकी सब रदीफ़ का हिस्सा है और वो एक लफ़्ज़ वफ़ा और कहा काफ़िले के तहत बँधे हैं। 


इसके अलावा भी शाइरी की ऐसी छोटी छोटी बातें हैं जो इसे खास बनाती हैं। मसलन एक नौजवान शाइर का शेर देखिए। 


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आप इन अशआर में एक चीज़ होती है बुनती जिसकी तारीफ़ किजीए। एक एक लफ़्ज़ मानो बिल्कुल उसकी सही जगह पर दिखाई पड़ती है। "और बस" रदीफ़ आखिर में शेर को perfect ending दे रही है। 


Is शाइरी an outdated art form? 


जौन एलिया का एक शेर है। 


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इंसान और इंसानी समाज में शुरू से ही जिन्दा रहने के लिए काम करने की आदत पाई गई। पहले आदमी ने शिकार करना शुरू किया जिसने उसकी खाने और पहनने की ज़रूरत को पूरा किया। फिर खेती करना सीखी। एक समाज निर्माण किया और फिर देखते देखते आदमी ने फैक्ट्रियाँ बना ली और अपने जैसे और इंसानों को काम पर रखने लगा। इन सब में इंसान ने लिखना पढ़ना कब सीख लिया? ये क्षेत्रों के हिसाब से अलग अलग वक्तों में घटी घटना हो सकती है। गुटेनबर्ग प्रेस की स्थापना के बाद कह लीजिए या हिन्दुस्तान में बौद्ध धर्म के प्रभाव से ग्रन्थों का पाली भाषा में आने के बाद कह लीजिए, यहीं कहीं आम लोगों ने पढ़ने का जुनून इख्तियार किया होगा।


पढ़ने के जुनून से ही लिखने के जुनून को हवा मिली होगी और एक भारी संख्या में लोग लिखने लगे होंगे। पर सवाल यहाँ ये उठता है कि वक्त के साथ हम यानी इंसान हर काम से ऊबते चले आए हैं। इंसान explore करना चाहता है। एक ऐसा समाज जहाँ सब एक ही काम करते हों वहाँ इंसान में एक खास मानसिकता पाई जाएगी जिसे कार्ल मार्क्स ने alienation in work कहा था। दरअस्ल मार्क्स के मुताबिक़ हम जो भी काम करते हैं हम उसमें खुद की छवि देखना पसंद करते हैं। जब समाज में सब की छवि एक सी दिखेगी तो किसी को अपनी छवि पर नाज़ नहीं होगा और काम से alienation की स्थिति बनेगी। इसलिए इंसान आज भी नए काम ढ़ूंढ़ता है। अब हम अपने पहले सवाल पर आ सकते हैं।


अगर वक्त के साथ हम सब कामों से ऊब ही जाते हैं,तो हमने अबतक लिखना क्यों नहीं छोड़ा? एक बहुत अच्छे शाइर और अदीब तसनीफ़ हैदर अपने एक साक्षात्कार में कहते हैं कि उर्दू ग़ज़ल में कोई और नया मौज़ू बचा नहीं है जिस पर कुछ लिखा जा सके, शेर कहे जाएँ! तो किया ये समझा जाए कि इंसानी नफ़्सियात के हर पहलू को छू लिया गया है! क्या इंसान को लिखना छोड़कर कोई और काम तलाशना चाहिए? आइए इसी बात को अलग अलग ज़ावियों से समझें।


आपने अगर जीवन को पहले से दुनिया के हिसाब से न ढाला हो तो आपको मालूम होगा कि जीवन अपने अंदरून में ही ऊबाउ है! एक ऐसा खेल जिसके खेलने का सबब मालूम भी आपको करना है, नियम भी आपको बनाने हैं और तो और जीतने पर खुद को खुद से ही ईनाम देना है, वो खेल ऊबाउ न हो तो क्या हो! घड़ी की एक एक मिनट को काम या आराम से भर देने की हवस से बाहर आकर ध्यान से देखिए और इस ऊबाउ ज़िन्दगी को महसूस करि। आप एक लिफ़्ट में चल रहे हैं जो बहुत ज़्यादा धीमी चल रही है। किस फ्लोर पर शुरू हुई थी मालूम नहीं, किस फ्लोर पर रूकेगी नहीं मालूम! रूकेगी भी या नहीं! शायद इसकी डोर बीच में ही कट जाएगी और ये   लिफ़्ट ज़मीन पर आकर गिर जाएगी। पर ये ज़मीन कहाँ है? और है भी या नहीं! आप अभी से बोरियत महसूस कर पा रहे होंगे। ऐसी ज़िन्दगी में एक अलग सच्चाई बनाने का मौका मिले तो कौन छोड़ेगा! क्या आपको लगता है कि एक दिन ये अलग सच्चाई बनाते बनाते इंसान इस काम से भी ऊब जाएगा? मेरी मानो तो इंसान के ऊबने की संभावना बड़ी प्रबल है। पर ऊब कर वो करेगा क्या? कौन सा नया आर्ट या लिखने में ही कोई और नया तरीका! ये सब सोच पाना मुश्किल हो रहा है! देखिए देखते हैं क्या होता है! 


अंजाम ए ब्लॉगियात 


हम इस पर बहस कर सकते हैं कि शाइरी किस हद तक अब महज़ एक repititive art form बन गयी है या अभी भी नये शेर कहने की गुंजाइश है। शाइरी अपनी ज़ात में इंसानी तसव्वुर और इंसानी एहसासात की मुकम्मल तर्जुमानी का इख्तियार है, इस पर कोई शक़ नहीं होनी चाहिए। 


एक शेर से बात खत्म की जाए तो ... 


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