Tabassum Anwar

Tabassum Anwar

@tabassum-anwar

Tabassum Anwar shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Tabassum Anwar's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
टूटे आईने को क्या घर में सजाना अच्छा
रूह के घाव को दुनिया से छुपाना अच्छा

उन से कह दो कि हमें अब न सताना अच्छा
जो तअ'ल्लुक़ सज़ा बन जाए मिटाना अच्छा

फ़ैसला दिल से करो साथ जो चलना है मिरे
सर को इक़रार में बस तुम न हिलाना अच्छा

दीजिए उम्र-दराज़ी की दुआएँ न मुझे
ख़ार से दामन-ए-दिल जल्दी छुड़ाना अच्छा

ख़ाक-ए-उल्फ़त को लिए सर पे क्यों गुलशन में रहूँ
दिल में वहशत हो तो सहरा में ही जाना अच्छा

रिश्ता-ए-ख़्वाब से कब ख़ुद को जुदा कर पाई
शब गुज़रने का यही इक है बहाना अच्छा

तेग़ गर्दन पे थी यूँ शाह की तारीफ़ करी
कितना मुश्किल था बुराई को बताना अच्छा

दिल-ए-बीमार को फिर इज़्न-ए-सफ़र क्या देती
एक मा'ज़ूर को अब कितना भगाना अच्छा

जब तलक पढ़ने के क़ाबिल रहा वो ख़त रक्खा
जिस की तहरीर मिटे उस को जलाना अच्छा

वो 'तबस्सुम' को भुला बैठा तुम्हें कैसे ख़बर
मुझ को अफ़्वाह में भी सच ही सुनाना अच्छा

तन-ए-मज़रूब लिए बज़्म में मुस्काती रही
घर की इज़्ज़त के लिए सब था दिखाना अच्छा
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Tabassum Anwar
मुझ से मिलने मेरे खे़मे में चली आती है गर्द
दश्त-ए-वहशत में फ़क़त मेरी मुलाक़ाती है गर्द

दश्त में बसना मुझे इस वास्ते रास आ गया
गर्द से मिल कर मिरी हस्ती भी बन जाती है गर्द

राएगानी का सताता है मुझे एहसास जब
ज़िंदगी का सोचती हूँ याद आ जाती है गर्द

फिर कोई वहशत घुमाए दायरा-दर-दायरा
घेर कर जब भी मुझे सहरा में ले जाती है गर्द

आइना यादों का अब खोने लगा है आब-ओ-ताब
कुछ तो खाए ज़ंग उस को और कुछ खाती है गर्द

दूरी-ए-मंज़िल हो कम जब ख़ार-ओ-ख़स उठने लगें
कारवाँ के कूच का उन्वान बन जाती है गर्द

जो अकड़ कर चल रहा है एक फ़िरऔं की तरह
ऐसे इंसाँ को इशारा इक मुकाफ़ाती है गर्द

सारा दिन हम सात भटकें शाम को थक हार कर
साथ मेरे हीर वारिस-शाह की गाती है गर्द

बस इसी ख़ातिर 'तबस्सुम' मुझ को ये भाती नहीं
आप की तस्वीर पर रोज़ाना पड़ जाती है गर्द
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Tabassum Anwar
न रो'ब-ए-जाह में आ कर किसी से गुफ़्तुगू की
जो हम ने की तो फिर अपनी ख़ुशी से गुफ़्तुगू की

ज़रूरी हो गया था शहर-ए-दिल बर्बाद करना
सो कर के हौसला ग़ारत-गरी से गुफ़्तुगू की

अदब की महफ़िलें खींचें हैं दिल लेकिन वहाँ तो
सभी थे बे-अदब सो बे-दिली से गुफ़्तुगू की

फ़साने बे-क़रारी के सुनाती और किस को
ये तेरा ग़म था तेरे हिज्र ही से गुफ़्तुगू की

अमीर-ए-सल्तनत था शाइबा तक हो न पाया
कि उस ने यूँ कमाल-ए-आजिज़ी से गुफ़्तुगू की

क़ज़ा से माँग कर मोहलत फिर हम ने पल-दो-पल की
ये पहली बार था जब ज़िंदगी से गुफ़्तुगू की

मैं लहजे के फ़ुसूँ में गुम थी सो ये तक न समझी
क्यों उस ने अब के इस वारफ़्तगी से गुफ़्तुगू की

न रास आईं जो हम को महफ़िलें शोर-ओ-शग़ब की
तो कुंज-ए-गुल में जा कर ख़ामुशी से गुफ़्तुगू की

दिखाई तूर पर मैं ने कुछ ऐसे होशियारी
कि आँखें बंद कर के रौशनी से गुफ़्तुगू की

रक़म इक दास्तान-ए-सब्र होने को थी लेकिन
समुंदर ने ख़ुद आ कर तिश्नगी से गुफ़्तुगू की

'तबस्सुम' कुछ भरम रखतीं तआ'रुफ़ होने देतीं
यूँ बे-ख़ुद हो के क्यों उस अजनबी से गुफ़्तुगू की
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Tabassum Anwar
आँखों में ले के यास मुझे देखने तो दे
कौन आ रहा है पास मुझे देखने तो दे

देखेगा कौन ख़ाक में जौहर छुपे हुए
ऐ शहर-ए-ना-शनास मुझे देखने तो दे

ये कौन महव-ए-रक़्स है यूँ आबलों के साथ
दश्त आया किस को रास मुझे देखने तो दे

लब खोलता नहीं न सही आँख तो मिला
तू ख़ुश है या उदास मुझे देखने तो दे

लाशों में एक लाश से उठने लगी है क्यों
फूलों के जैसी बास मुझे देखने तो दे

मैं डूब तो रही हूँ मगर जानिब-ए-कनार
जब तक बंधी है आस मुझे देखने तो दे

क्या है ख़ुमार-ए-हुस्न से बढ़ कर कोई नशा
ये मय है ये गिलास मुझे देखने तो दे

फिर कौन रो रहा है किनारे फ़ुरात के
होंटों पे ले के प्यास मुझे देखने तो दे

यूँ तो जहाँ-शनास 'तबस्सुम' हर एक है
है कोई ख़ुद-शनास मुझे देखने तो दे
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Tabassum Anwar
वो कम-आमेज़ मुझ से हम-सुख़न होने लगा है
ब-यक लहज़ा ये दश्त-ए-दिल चमन होने लगा है

सुहूलत से वो पढ़ता जा रहा है ज़ेहन मेरा
बदन सोचों का फिर बे-पैरहन होने लगा है

मिरी तन्हाई और वहशत में फिर से ठन गई है
यूँ लगता है कोई घमसान रन होने लगा है

अता कीजे मिरे मुर्शिद मुझे कोई वज़ीफ़ा
मिरा दिल फिर से दुनिया में मगन होने लगा है

ये रूहों के मिलन की कर न दे मसदूद राहें
कि हाइल इस मिलन में अब बदन होने लगा है

पकड़ ही ली जड़ें उल्फ़त ने आख़िर इस ज़मीं में
दयार-ए-ग़ैर अब मेरा वतन होने लगा है

बिठा रक्खे हैं उस ने मुझ पे यूँ नादीदा पहरे
खुला माहौल भी मन की घुटन होने लगा है

मिरे तर्ज़-ए-तकल्लुम में था जो बे-साख़्ता-पन
वही मेरे सुख़न का बाँकपन होने लगा है

जहाँ त्यागा 'तबस्सुम' जिस को अपनाने की ख़ातिर
उसी से अब बिछड़ने का जतन होने लगा है
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Tabassum Anwar
ये चीख़ें ये आह-ओ-बुका किस लिए है
मिरे शहर की ये फ़ज़ा किस लिए है

बता ज़िंदा-दरगोर है आदमी क्यों
बता आसमाँ पर ख़ुदा किस लिए है

हैं मसले हुए शाख़ दर शाख़ गुल क्यों
चमन दर चमन सानेहा किस लिए है

अकेला दिया रहगुज़र का बुझा कर
पशेमाँ बहुत अब हवा किस लिए है

जो तुम सामने आए तो मैं ने जाना
कि मंज़र ने बदली क़बा किस लिए है

न तज़ईन-ए-गुल है न पैग़ाम-ए-ख़ुशबू
गुलिस्ताँ में चलती सबा किस लिए है

मुझे ज़िंदगी में दिया था जहन्नुम
तो अब रोज़-ए-महशर सज़ा किस लिए है

ये तय है यहाँ कोई दर कब खुलेगा
ऐ दरवेश देता दुआ किस लिए है

मिरे चारागर तू ने वा'दा किया था
तो फिर दिल का घाव भरा किस लिए है

ब-नाम-ए-सज़ा जब मिला है ये जीवन
तो जीने में इतना मज़ा किस लिए है

किसी की भी जब मुंतज़िर मैं नहीं हूँ
तो दर मेरा आख़िर खुला किस लिए है

दुआओं में मेरी असर आ गया क्या
वो यूँ जाते जाते रुका किस लिए है

'तबस्सुम' हो कैसे ये उक़्दा-कुशाई
बक़ा किस की ख़ातिर फ़ना किस लिए है
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Tabassum Anwar