Waheed Ahmad

Waheed Ahmad

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Waheed Ahmad shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Waheed Ahmad's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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हम पैदा करते हैं
हम गीली मिट्टी को मुट्ठी में भींचा करते हैं
तो शक्लें बनती हैं
हम उन की चोंचें खोल के साँसें फूँका करते हैं
जो मिट्टी थे वो छू लेने से ताइर होते हैं
हम शाइ'र होते हैं
कनआन में रहते हैं
जब जल्वा करते हैं
तो शश्दर अंगुश्तों को पोरें नश्तर देती हैं
फिर ख़ून टपकता है जो सर्द नहीं होता
इक सहमा सा सकता होता है दर्द नहीं होता
यूनान के डाकू हैं
हम देवताओं के महल में नक़ब लगाया करते हैं
हम आसमान का नीला शह-दरवाज़ा तोड़ते हैं
हम आग चुराते हैं
तो इस दुनिया की यख़ चोटी से बर्फ़ पिघलती है
फिर जमे हुए सीने मिलते हैं
साँस हुमकती है
और शिरयानों के मुँह खुलते हैं
ख़ून धड़कता है
जीवन-रामायन में
जब रावन इस्तिब्दादी कारोबार चलाता है
हम सीता लिखते हैं
जब रथ के पहिए जिस्मों के पोशाक कुचलते हैं
तो गीता लिखते हैं
जब होंटों के सहमे कपड़ों पर बख़िया होता है
हम बोला करते हैं
जब मंडी से एक एक तराज़ू ग़ाएब होता है
तो जीवन को मीज़ान पे रख कर तोला करते हैं
मज़दूरी करते हैं
हम लफ़्ज़ों के जंगल से लकड़ी काटा करते हैं
हम अर्कशी के माहिर हैं अम्बार लगाते हैं
फिर रंदा फेरते हैं फिर बर्मा देते हैं
फिर बुध मिलाते हैं फिर चूल बिठाते हैं
हम थोड़े थोड़े होते हैं
इस भरी भराई दुनिया में हम कम-कम होते हैं
जब शहर में जंगल दर आए और उस का चलन जंगलाए
तो हम ग़ार से आते हैं
जब जंगल शहर की ज़द में हो और उस का सुकूँ शहराए
तो बरगद से निकलते हैं
हम थोड़े थोड़े होते हैं
हम कम-कम होते हैं
हम शाइ'र होते हैं
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मैं आख़िर किस की जागत जागता हूँ
पपोटों में ये किस पानी का नमकीं ज़ाइक़ा है
मिरी पुतली में किस की रात है
और कार्निया में कौन से युग का सवेरा है
ये दिन भर कौन
मिज़्गानी किवाड़ों को मुसलसल खोलता और बंद करता है
मिरी तार-ए-नज़र पर बैठ कर
आख़िर ज़माने में नज़र किस की उतरती है
मैं आँखों से ये किस मंज़र के अंदर भागता हूँ
मैं आख़िर किस की जागत जागता हूँ?
भला मैं किस का सोना सो रहा हूँ
ये रेग-ख़्वाब पर बनते बिगड़ते क्या निशाँ हैं
मिरे अंदर तो जितने क़ाफ़िले चलते हैं
सारे अजनबी हैं
मैं हर इक ख़्वाब में कोई शनासा ढूँडता हूँ
ये कैसी औरतें हैं
जो सर में रेत का अफ़्शाँ भरे
मुझ को जकड़ती हैं
जो बाद-अज़-इख़्तिलात आहों से चीख़ों से पिघल कर
रेत हो जाती हैं गीली रेत में!!
ये बच्चे किस सदी के हैं
जो अपने क़हक़हा-आवर खिलौने मेरे हाथों में
थमा कर भाग जाते हैं
ये किस माबद के जोगी हैं
सहीफ़ों की ज़बाँ में बोलते हैं
इन के फ़र्ग़ुल फड़फड़ाते हैं
हवा में रीश उड़ती है
ये मैं किस की ख़ुशी को हँस रहा हूँ
किस का रोना रो रहा हूँ
भला मैं किस का सोना सो रहा हूँ?

मैं आख़िर किस का जीना जी रहा हूँ
मैं सहरा का शजर हूँ
जिस की शाख़ें घोंसलों से झुक गई हैं
किराए का मकाँ हूँ
जिस के कमरों में पराए लोग रहते हैं
फ़राज़-ए-कोह पर कोई पुराना ग़ार हूँ मैं
हवा से गूँजता साया-ज़दा वीराँ खंडर हूँ
कभी हूँ ईस्तादा और कभी मिस्मार हूँ मैं
फ़सील-ए-शहर हों या साया-ए-दीवार हूँ मैं
मिरे अंदर से ही कोई मुझे बतलाए
मैं क्या हूँ?
मिरे ख़लियों के गीले मरकज़ों में बंद
डी-एन-ए मिरे माँ बाप का है
जो इस के गिर्द पानी है
वो किस बेचैन सय्यारे के सागर से उठा है
मैं किस को भोगता हूँ
ये आख़िर कौन मुझ में गूँजता है
सनसनाता है
मैं आख़िर किस का होना हो रहा हूँ
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अभी लंगर नहीं डाला
तिकोनी बादबाँ की रस्सियाँ ढीली नहीं कीं
अभी मस्तूल अपने पाँव के ऊपर खड़ा है
सफ़ीने के भरे सीने में
साँसों का ज़ख़ीरा सरसराता है

अभी हम नाक़िदाना फ़ासले से
अजनबी साहिल के तेवर देखते हैं
खुजूरों के दरख़्तों में छुपी सरगोशियाँ सुनने की ख़ातिर
हम ने अपने कान ज़िंदा कर दिए हैं
पहाड़ी में सरकते
तीर-अंदाजों के कारोबार पे आँखें लगा दी हैं
हमें
तुम अपने साहिल पर
पज़ीराई के किस अंदाज़ के क़ाबिल समझते हो
ये तुम पर है

अगर तुम तीर छोड़ोगे
तो हम ने अपनी आँखों के सिवा
सारा बदन पिघले हुए लोहे के पानी में डुबोया है
हमारा हाथ
तरकश के खुले मुँह पर धरा है
कमाँ की ख़ुश्क और अकड़ी ज़बाँ तो
मुद्दतों से तीर चखने के लिए बेचैन है
तुम्हें ये इल्म होना चाहिए
कि हम जब अपने तीर पे
दुश्मन की बाएँ आँख लिखते हैं
तो बाएँ आँख होती है
कभी अबरू नहीं होता
ये तुम पर है
अगर तुम हम को सीने से लगाने के लिए
साहिल पे आ कर अपने बाज़ू खोल दोगे
तो हम भी
फड़फड़ाते बादबाँ की रस्सियों को खोल देंगे
अगर तुम तीर अंदाज़ों की टोली को पहाड़ी से उतारोगे
तो हम भी
जिस्म से लिपटा हुआ लोहा गिरा देंगे

तुम्हारे हर अमल को हम
बड़ी ईमान-दारी से, बड़े इंसाफ़ से रद्द-ए-अमल देंगे
तुम्हें ये इल्म होना चाहिए
कि आँख के बदले में आँख
और दिल के बदले दिल हमारा ज़ाबता है
तुम्हारा हुस्न-ए-ज़न है
सोच के हर ज़ाविए से सोचना
कि हम जो पानी पर खड़े हैं
किस पज़ीराई के क़ाबिल हैं
मगर कुछ भी करो

मद्द-ए-नज़र रखना कि हम मद्द-ए-मुक़ाबिल हैं
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शाम में ग़ार था
ग़ार में रात थी
रात के नम अंधेरे में इक अजनबियत का एहसास था
चलती साँसों की हिलती हुई सतह पर
वक़्त की नाव ठहरी हुई थी
सनसनाते हुए नम अंधेरे में पौरें धड़कने लगीं
ग़ार में महव-ए-परवाज़ पलकों के पंछी उलझने लगे

ग़ार में शाम थी
चंद लम्हों में सदियाँ बसर कर के जब
ग़ार के दौर से हम ज़माने में आए
तो ढलते हुए दिन की गीली चमक पत्थरों पर जमी थी
मुड़ के देखा तो पलकों को परवा लगी
और मख़मूर आँखों को सपना लगा
गूँजते ग़ार का नम अंधेरा हमें अपना अपना लगा
ग़ार ने कुछ तो जाने दिया कुछ हमें रख लिया था
निहायत सुबुकसार थे
ऐसे चलते थे जैसे ज़मीं के मकीं
कुर्रा-ए-माह पर चल रहे हों

शाम के पेड़ पर इक परिंदा
गजरतान भेरों में गाने लगा
वक़्त का साँवला पेड़ है
पेड़ के मल्गजे पात हैं
दिल के अपने ज़मान ओ मकाँ
शाम के अपने दिन रात हैं
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ज़ईफ़ी की शिकन-आलूद चादर से बदन ढाँपे
वो अपनी नौजवाँ पोती के साथ
आहिस्ता आहिस्ता
सड़क के एक जानिब चल रहा था
गुमाँ होता था
जैसे धूप के काँधे पे
छाँव हाथ रक्खे चल रही है
चीख़ती एड़ियों पर कड़कड़ाती हड्डियाँ गाड़े हुए
वो जिस्म का मलबा उठाए जा रहा था
अगरचे पाँव जुम्बिश कर रहे थे
मगर बूढ़ी कमर इतनी ख़मीदा थी
कि टाँगें झूलती बैसाखियाँ मालूम होती थीं

अचानक एक जीप आ कर रुकी
लड़के ने शीशे को उतारा और देखा
फूल पतली शाख़ से लटका हुआ था
ख़ज़ाना ग़ार में था
और दहाने पर फ़क़त मकड़ी का जाला था
हिरन पिंजरे में था
और उस के दरवाज़े पर जंग-आलूद ताला था
वो भूके शेर की मानिंद लपका
और उस लड़की की
नीली काँच में लिपटी कलाई पर शिकंजा कस दिया
बूढ़े ने कंधा छोड़ कर अपनी कमर पर हाथ रक्खे
अपनी आँखों को नज़र दी
और अपने पाँव पर टाँगें लगा लीं
बदन सालों की दीमक की
मुसलसल कार-फ़रमाई से ढल जाते हैं
लेकिन ग़ैरतें बूढ़ी नहीं होतीं

न जाने वो हवा का तेज़ झोंका था
या बूढ़े पाँव के हल्के तवाज़ुन की ढिलाई थी
फिर लड़के के हाथों की दराज़ी थी
कि वो बूढ़ा
बड़ी ही बेबसी के साथ नीचे गिर गया
और उस के ढलके जिस्म ने
काली सड़क के साथ टकराते ही इक आवाज़ दी

पचासी साल नीचे गिर गए थे

कभी जब ज़लज़ला आए
तो उस की झुरझुरी सी मुख़्तलिफ़ उम्रों के घर
गिरते हैं और आवाज़ देते हैं
नए सीमेंट में लिपटी नम-इमारत गिर पड़े
तो गड़-गड़ाहट फैल जाती है
प्लाज़ा मुनहदिम हो जाए तो उस के धमाके में
मुसलसल चड़चड़ाहट
साथ देती है
मगर कोई हवेली गिर पड़े
जिस के दर ओ दीवार पर
काई अंधेरा गूँध के अपनी हरी पोरों से मलती है
तो उस में सदियाँ बोलती हैं
और गुज़री साअतों की काँपती ख़ामोशियाँ आवाज़ देती हैं

जब उस ने हाथ से धरती दबा के
कोहनियों की आज़माइश की
कि शायद इस तरह वो उठ सके
तो सिर्फ़ अपने सर को गर्दन का सहारा दे सका
बालों की लम्बी एक लट
माथे पे मुतवाज़ी खुदी शिकनों में
छुप कर काँपती थी
और कुछ बालों को ताज़ा चोट रंगीं कर गई थी
तहय्युर बेबसी के साथ
आँखों की नमी में जज़्ब हो कर
आहनी चश्मे के
शीशों में लरज़ता था
खुले होंटों में दाँतों के शिगाफ़ों को
ज़बाँ पैवंद करती थी
दहन के नम किनारे
कान के बुन
सुर्ख़ रुख़्सारों के बल
चाह-ए-ज़क़न के मुँह से लटके
तह-ब-तह गर्दन के सिलवट
और उन में डोलते पानी के क़तरे
सब के सब हिलते थे
बस रफ़्तार में इक दूसरे से मुख़्तलिफ़ थे

हवेली गिर गई थी
उन्नाबी गर्द ने दीवार ओ दर गहना दिए थे
फ़सीलें सुरमई तालाब के अंदर गिरी थीं
हरम दरवाज़ा पाईं बाग़ में औंधा पड़ा था
और उस की कील में उलझा हुआ
बारीक पर्दा हिल रहा था
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Waheed Ahmad
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हमें तुम मुस्कुराहट दो
तुम्हें हम खिलखिलाते रोज़ ओ शब देंगे
ये कैसे हो
कि तुम बौछाड़ दो
तो हम तुम्हें जल-थल न दे दें
और सहराओं को फ़र्श-ए-आब न कर दें
हमारा ध्यान रखो तुम
तुम्हें दुनिया में रखेंगे हम अपनी आरज़ुओं की
ये कैसे हो
कि तुम सोचा करो
और हम तुम्हारी सोच को तज्सीम न कर दें
मुरव्वज चाहतों के
बे-लचक आईन में तरमीम न कर दें
तुम्हें ये भी बताते हैं
अगर कोई ख़लिश है या कोई इबहाम है दिल में
तो फिर आगे नहीं बढ़ना
कि हम शफ़्फ़ाफ़ हैं
शफ़्फ़ाफ़ियाँ ही चाहते हैं
बे-नज़र शीशों में अपने अक्स को मैला नहीं करते
तुम्हें ये भी बताते हैं
अगर तुम छब दिखा के छुप गए
तो हम तुम्हें ढूँडेंगे चाहे आप खो जाएँ

अगर तुम कहकशाँ मस्कन बनाओगे
तो हम भी रौशनी-ज़ादे हैं
सूरज के पुजारी हैं
हम ऐसे सब सितारे तोड़ देते हैं
जो हम से रौशनी की भीक भी लेते हैं
आँखों में भी चुभते हैं
अगर पाताल में छुपने की कोशिश की
तो फिर ऐ सीम-तन!
धरती हमारे वास्ते सोना उगलती है
भला चाँदी कहाँ इस में ठहरती है

हमारी राह में
शीशा-नुमा पानी की झीलें मत बिछाना तुम
ये कंकर फेंक कर ही फ़ैसला होगा
कि उस पहनाई में कश्ती उतरती है
या फिर हम पाँव धरते हैं
मगर ऐसा न करना तुम
कि हम ऐसा ही करते हैं
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Waheed Ahmad
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नाफ़ कटती है ज़ख़्म जलता है
ख़ौफ़ धड़कन के साथ चलता है
हर रग-ए-जाँ में सरसराता है
साँस के साथ आता जाता है
खाल को छाल से मिलाती है
सनसनी रौंगटे बनाती है
ताक़-ए-जाँ में चराग़ रखता है
ख़ैफ़-ए-वहशत का तेल चखता है
सज्दा-ए-ग़म में गिर गया ज़ाहिद
सरसराती जबीं में ख़ौफ़ लिए
हो गया अंग्बीन से नमकीन
ज़ाइक़ा आस्तीं में ख़ौफ़ लिए
साँप लश्कर के साथ चलता है
मेमना मैसरा में ख़ौफ़ लिए
हुस्न ग़म्ज़े के दम से क़ाएम है
अपनी हर हर अदा में ख़ौफ़ लिए
ज़िंदगी एक फ़र्श है जिस पर
डर उठाएँ तो हौल बिछता है
शाहराह-ए-हयात के ऊपर
ख़ौफ़ का तारकोल बिछता है
मज़हब ईजाद करता रहता है
माबद आबाद करता रहता है
ये तो अंदर की संग सारी है
ख़ौफ़ बर्बाद करता रहता है
फ़हम ओ दानिश के ज़र्द सौदागर
वसवसों की कपास बेचते हैं
रूह की मार्किट उन की है
जो अक़ीदे हिरास बेचते हैं
ज़िंदगी हम-सफ़र है लेकिन ख़ौफ़
रास्ते में उतार देता है
परचा-ए-जाँ के हर शुमारे में
वाहिमा इश्तिहार देता है
मौत ख़ुद मारती नहीं जितना
मौत का ख़ौफ़ मार देता है
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Waheed Ahmad
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(सच्चे लोगों के नाम)
अजीब माँ हो
तुम अपने बच्चों को मारती हो
तो इस ख़ता पर
कि वो हुकूमत की वहशतों के ख़िलाफ़ निकले
जुलूस के साथ जा रहे थे
तुम अब परेशान हो रही हो
मैं आने वाली घड़ी के बारे में सोचता हूँ
जब एक मौसम कई कई साल तक रहेगा
तुम अपने हाथों से मिरे शाने हिला हिला कर कहोगी
बाहर निकल के उन काफ़िरों को रोको
जो अपने जिस्मों में अंधा हीजान भर के
सड़कों पे चीख़ते हैं
रब्ब-ए-मौसम
जुलाई सर पे है और कोहरा
हमारे जिस्मों में
और फ़सलों के रोंगटों में उतर रहा है
हमें जुलाई में जनवरी की फ़ज़ाएँ मंज़ूर किस तरह हों
हमारे ज़ेहनों में
रुत की तब्दीलियों के ख़ाके बने हुए हैं
अब तुम परेशान हो रही हो
मैं गुज़रे वक़्तों की आहटें सुन रहा हूँ
जब मैं ने ये कहा था
कि बच्चे तुम पे गए तो आराम से रहेंगे
मगर जो वरसे में मेरी सोचें मिलें
तो वादा करो ये शिकवा नहीं करोगी
कि मेरे बच्चे
जिन्हें कई माह मैं ने अपना लहू दिया था
वो उस लहू को
उजाड़ सड़कों के मुँह पे मलने पे तुल गए हैं
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(तीसरी दुनिया के तमाम लोगों के नाम)
अजब हादसा है
कि बचपन में हम जिन खिलौनों से खेले थे
अब वो खिलौने
हमारे ही हालात से खेलते हैं
वो नाज़ुक मुजस्समे
वो रंगीन गुड़ियाएँ
तय्यारे पिस्तौल
फ़ौजी सिपाही
कभी जो हमारे इशारों के मोहताज थे
आफ़रीं तुझ पे मेयार-ए-गर्दिश
कि अब वो खिलौने
हमें चाबियाँ भर रहे हैं
हमारे मवेशी हमारे ही बाग़ात को चर रहे हैं
खिलौनों के इस खेल में
हम तो यूँ खो गए हैं
कि हर काम की हम से उम्मीद रख लो
अगर कोई तकवे की चाबी घुमा दे
तो दाढ़ी बढ़ा लें
अगर कोई थोड़ी सी क़ीमत लगा कर
किसी शख़्स का घर बता दे
तो अगले ही पल में उस की गर्दन उड़ा दें

हमारा है क्या
हम तो अंधे मुअज़्ज़िन हैं
बाज़ू पकड़ के जो गरजे में ले जाओगे
तो भी मर्यम की तस्वीर के सामने
उँगलियाँ कान में ठूँस लेंगे
हमारा है क्या
हम तो पत्थर की वो मूर्ती हैं
जिसे चाहे सज्दा करो
या तमाचा लगा दो
मगर वो तो हाथों से छाती छुपाए
सदा मुस्कुराती रहेगी
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ये होता है
कोई माने न माने
ये तो होता है
किसी फैले हुए लम्हे किसी सिमटे हुए दिन
या अकेली रात में होता है
सब के साथ होता है
बदन के ख़ून का लोहा ख़यालों के अलाव में उबल कर
सुर्ख़ नेज़े की अनी को सर की जानिब फेंकता है
और फिर शहतीर गिर जाता है
जिस पर ख़ुद फ़रेबी पतली ईंटों की चिनाई करती रहती थी
ये मेरा माल फ़ित्ना है
मिरे माँ बाप साया हैं
मिरी औलाद फ़ित्ना है
बहुत तन्हा है इंसाँ
कीमिया-गर के प्याले से गिरे क़तरे के पारे की तरह तन्हा
सफ़र करते हुए तारों के झुरमुट में खड़े
क़ुत्बी सितारे की तरह तन्हा

ये सब
हँसते हुए लब रोती आँखें
हंजरे के जोफ़ से लहरा के निकली सारी आवाज़ें
ये गाते नाचते लोगों के झुरमुट
इश्वा ओ नाज़ ओ अदा से खींचते पैकर
ये सारी सैर-बीनी ख़ुद-फ़रेबी है
ये सारी यार-बाशी और सब सहरा-नशीनी ख़ुद-फ़रेबी है
मैं अपनी माँ के पहले दूध से दर्द-ए-तह हर जाम तक
तन्हाई के इक ख़त पे चलता जा रहा हूँ
मैं अकेला हूँ
मैं बज़्म दोस्ताँ के क़हक़हों के गूँज में डूबे
सराबी दश्त की लर्ज़िश में पानी ढूँडता हूँ
मैं अकेला हूँ

मिरी तन्हाई
माँ जाई
जो मेरे साथ पैदा हो के मेले में कहीं गुम हो गई थी
मेरी बू की ढूँडती
मेरे लहू को सूँघती वापस चली आई है
मेरे सामने बैठी है
मुझ को देखती है
उस का हर तार-ए-नज़र आँखों से दाख़िल हो के
मेरी खोपड़ी की पुश्त से बाहर निकलता है
मिरी तन्हाई सनअत-कार है
वो मेरी शिरयानों से लहू छान कर नेज़े बनाती है
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