मैं संग-दिल हर जगह ग़ुबार-ए-सितम से लबरेज़ चलता हूँ
मगर मिरी माँ के ज़िक्र पर आज भी सरासर पिघलता हूँ
शिकस्त मिलने से ही कुछ अपनी कहानियाँ ख़ास बनती हैं
शिकस्ता-दिल को इसी कहानी से मैं मह-ओ-साल छलता हूँ
जहान में बे-लिबास सच पर नज़र नहीं डालता कोई
इसीलिए तो ग़ज़ल-सराई से सच की चादर बदलता हूँ
बड़े सलीक़े से पार करता चलूँ नदी-वादियाँ यूँ तो
मगर तिरी याद की ज़मीं पर मैं बे-तहाशा फिसलता हूँ
शदीद होते हैं और बढ़कर सराब तेरे नज़ारों के
निकाल कर दिल बदन से तेरी गली में जब भी निकलता हूँ
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