या तो रुक जाओ कि शायद मेरा यार आ जाए
घोंप दो वरना ये ख़ंजर कि क़रार आ जाए
क्या ख़बर तेरे तबस्सुम की कुशादा रुत में
मेरे नाशाद लबों पे भी बहार आ जाए
क्या ये तकलीफ़ ही हम-राह रहेगी मेरी
काश पैरों तले इसके कोई ख़ार आ जाए
ज़ेब-ओ-ज़ीनत न कर इतनी कि कहीं लेके फ़ुगाँ
कल को दर पे तिरे फूलों की क़तार आ जाए
इसलिए की है मोहब्बत की ज़मीं तर उसने
ख़ुश्क हों जैसे ही आँसू तो दरार आ जाए
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