पेशानी में ऐसी हरकत है अब क्यूँ
फैली ख़ामोशी है दहशत है अब क्यूँ
अपनी-अपनी साँसें रख कर समझाओ
मुर्दों को लहदों से नफ़रत है अब क्यूँ
मुझ को हैरानी है मरने पर मेरे
दोज़ख़ में चर्चे हैं इज़्ज़त है अब क्यूँ
तुम हाथों में आतिश लेकर चलते थे
पानी से जलने की हसरत है अब क्यूँ
मिल जाती है जिनको ग़म से आज़ादी
फिर भी वो पूछेंगे ज़हमत है अब क्यूँ
तय था सूरज को गर्दिश से खीचेंगे
तरकीबों की भारी क़िल्लत है अब क्यूँ
सर पे छत है तब भी क्या नाकाफ़ी है
आख़िर दीवारों की क़ीमत है अब क्यूँ
ऊँची आवाज़ों में भरते हैं हामी
मैं भी सोचूँ सारे सहमत हैं अब क्यूँ
किन ख़्वाबों में डूबे-डूबे रहते हैं
तुझ में मुझ में सब में ग़फ़लत है अब क्यूँ
कहता है 'तुम चौथी सफ़ में आ जाओ'
रहबर को भी इतनी फ़ुर्सत है अब क्यूँ
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