हादसों का नहीं मंसूब ठिकाना कोई
ढूँढ ही लेते ये मिलने का बहाना कोई
याद-ए-रफ़्ता में हैं मसरूफ़ मेरे आलम सब
रोज़ होता है ज़िद-ए-वक़्त रवाना कोई
ज़ेर-ए-साया रखा है दर्द छुपाए हमने
दर्द उसका दिया लगता है ख़ज़ाना कोई
गुर्फ़े पे बैठे हुए रात कटी काफ़िर की
चाँद बतलाता था चाहत का फ़साना कोई
राख गिरती धुआँ उठता है बदन से किसी के
आतिश-ए-इश्क़ में जलता है दिवाना कोई
आदतन ही बढ़ा था हाथ तेरी ओर सनम
अब त'अल्लुक़ है नहीं फिर से बनाना कोई
सब सुख़नवर हैं रहे दर्द के आदी 'चेतन'
ख़ुश-मिज़ाजी ने नहीं बख़्शा सियाना कोई
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