ज़रा सी बात तू समझ सकी नहीं
वो ज़िंदगी में है, वो ज़िंदगी नहीं
मैं मर गया, मेरी वफ़ा मरी नहीं
ये आग तो बुझाने से बुझी नहीं
चढ़ाव उतार उस बदन के पढ़ लिए
वो बुक जो पढ़नी चाहिए, पढ़ी नहीं
वो हाथ तक तो आई, मुँह नहीं लगी
जो मेरे साथ थी, मेरी हुई नहीं
कुछ इस तरह हमारा रब्त टूटा था
अमीर की फ़क़ीर से बनी नहीं
मैं एक हश्र था, जो उसपे बरपा था
वो मेरे बाद चैन से रही नहीं
तू मेरे जैसा कोई एक ढूँढ ला
जो तेरा हो मगर तेरा हो भी नहीं
ग़म ए फ़िराक में नया बदन चखा
नई शराब भी हज़म हुई नहीं
वे लोग मर गए जो मुझ पे मरते थे
तू धोखा दे गई, सो तू मरी नहीं
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