शाया जो शायरी की तुम्हारी किताब हो
तहरीर उसमें मुझ पे शजर एक बाब हो
ज़ुल्फ़-ए-सियाह-फ़ाम रूख़-ए-जान से हटें
तो फिर नमू नगर में मेरे माहताब हो
रौनक है जिससे सारे गुलिस्ताँ में इश्क़ के
तुम बा-ख़ुदा मता-ए-गिराँ वो गुलाब हो
क़ल्ब-ए-हज़ी ये कहता है फ़ुर्क़त में आपकी
मय ख़ारी मयक़दे में हो और बे हिसाब हो
कल रात ख़्वाब-ए-शीरीं में देखी है सल्तनत
वाज़-ए-नजूमी अब मेरी ता'बीर-ए-ख़्वाब हो
ये एतिबार_ए_लग्ज़िश_ए_पा हो उरूज़ पर
हाकिम से राहरौ को अगर बारयाब हो
ये आरज़ू-ए-क़ल्ब-ए-तपाँ हैं मता-ए-जाँ
हाथों पे हो हिना तेरे रूख़ पर नक़ाब हो
परवरदिगार रख ले दुआ का मेरी भरम
मेरे गुनाहगार पे नाज़िल अज़ाब हो
इक शाहज़ादी महव-ए-तकल्लुम हैं शाह से
क्यूँ न मुनाफ़िकों का कलेजा कबाब हो
जो राहरों जहान में मंज़िल से दूर हैं
मंज़िल मेरे इलाही उन्हें दस्तियाब हो
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