मेरी परछाइयाँ गुम हैं मेरी पहचान बाक़ी है - Abbas Qamar

मेरी परछाइयाँ गुम हैं मेरी पहचान बाक़ी है
सफ़र दम तोड़ने को है मगर सामान बाक़ी है

अभी तो ख़्वाहिशों के दरमियाँ घमसान बाक़ी है
अभी इस जिस्म-ए-फ़ानी में ज़रा सी जान बाक़ी है

इसे तारीकियों ने क़ैद कर रक्खा है बरसों से
मेरे कमरे में बस कहने को रौशनदान बाक़ी है

तुम्हारा झूट चेहरे से अयाँ हो जाएगा इक दिन
तुम्हारे दिल के अंदर था जो वो शैतान बाक़ी है

गुज़ारी उम्र जिसकी बंदगी में वो है ला-हासिल
अजब सरमाया-कारी है नफ़ा-नुक़सान बाक़ी है

अभी ज़िंदा है बूढ़ा बाप घर की ज़िन्दगी बनकर
फ़क़त कमरे जुदा हैं बीच में दालान बाक़ी है

ग़ज़ल ज़िंदा है उर्दू के अदब-बरदार ज़िंदा हैं
हमारी तरबीयत में अब भी हिंदोस्तान बाक़ी है

- Abbas Qamar
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Aawargi Shayari

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