अनपढ़ गँवार शख़्स ही बनता मुशीर है - Prashant Kumar

अनपढ़ गँवार शख़्स ही बनता मुशीर है
जो कुछ नहीं बने तो समझ बे-नज़ीर है

तू पिट रहा तो चोट मुझे क्यूँ है लग रही
तेरा शरीर है कि ये मेरा शरीर है

तू था ज़मीर-दार हर इक 'ऐब से भरा
मेरे ख़याल से तिरा रौशन-ज़मीर है

कुछ भी नहीं था हुस्न तिरा चौकसी बिना
मेरी ही देख-रेख से निखरा शरीर है

हम क्या हुआ ग़रीब हैं मेहनत की खा रहे
तू रोटी कपड़े माँगता कैसा अमीर है

- Prashant Kumar
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