इश्क़ में शख़्स कोई नीलकमल लाया है
कोई कोई तो निशानी ही डबल लाया है
रस्म-ए-उल्फ़त की उसे फ़िक्र है कितनी देखो
ढूँढ कर ऐसी ख़िज़ाँ में भी कँवल लाया है
कितना आसान है अब क़त्ल किसी का करना
फिर भी घूँघट में छुपा कर के तगल लाया है
नक़्स आया था नज़र कोई हुनर में शायद
सो मिरी जान ख़ुदा से वो बदल लाया है
घेर रक्खा है उसे क़र्ज़ के अल्फ़ाज़ों ने
अब की क़िस्तों पर उठाकर के ग़ज़ल लाया है
माफ़ करना मिरा महबूब चमन के गुलचीं
भूल में आज कोई फूल मसल लाया है
इश्क़ कितना है अब अंदाज़ लगा लो ख़ुद ही
दिल पे बनवा के सनम ताज-महल लाया है
मुझको साँसों की ज़रूरत है सो मेरा महबूब
हाथ के हाथ किताबों से बदल लाया है
फ़स्ल बर्बाद न हो जाए इसी के डर से
वो नगीने में छुपा करके नज़ल लाया है
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