गुज़रे हुए फिर लौट ज़माने नहीं आते
अब राह में वो लोग पुराने नहीं आते
हर रोज़ अकेले ही निकलते हैं सफ़र पर
इक दौर हुआ लोग बुलाने नहीं आते
इतना है अगर रब्त उन्हें रंज-ओ-अलम से
फिर क्यूँ मिरी दुल्हन को सजाने नहीं आते
सब फूँक लगाकर ही क़दम रखना डगर में
जो लोग रखें काँटा उठाने नहीं आते
हम सूख गए सूख गए पुतलियाँ सूखीं
अब हमको हमारे ही रुलाने नहीं आते
इक रोज़ चबाए थे चने उनको तभी तो
अब जाली इधर नोट चलाने नहीं आते
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