कुर्सी चुराने की अभी आदत नहीं गई - Prashant Kumar

कुर्सी चुराने की अभी आदत नहीं गई
दैर-ओ-हरम के नाम सियासत नहीं गई

अपनी जगह पे ठीक हूँ मालूम है तुझे
पर उँगलियाँ उठाने की आदत नहीं गई

दंगा-फ़साद हो रहा है इस अदा से पर
आँखों में मुस्कुराने की आदत नहीं गई

सबको सिखा गया था मोहब्बत अगर ख़ुदा
फिर क्यूँ कभी जहान से नफ़रत नहीं गई

सुनवाई तो कभी भी हो होगी दलील की
मुंसिफ़ चला गया है अदालत नहीं गई

मैं ही बिचौलिया रहा क़ाज़ी भी मैं रहा
फिर भी मिरे मकान पे दावत नहीं गई

- Prashant Kumar
0 Likes

More by Prashant Kumar

As you were reading Shayari by Prashant Kumar

Similar Writers

our suggestion based on Prashant Kumar

Similar Moods

As you were reading undefined Shayari