गुल की ये ज़र्द चादर ऐसे बिछा रखी है

  - Arman Habib

गुल की ये ज़र्द चादर ऐसे बिछा रखी है
सारे ज़मीं को जैसे हल्दी लगा रखी है

तितली का रक़्स फिर वो भँवरे की नर्म गुफ़्तन
सरसों के खेत ने ये महफ़िल सजा रखी है

फूलों की मुस्कुराहट पत्तों की गुनगुनाहट
खेतों ने गीत जैसे मस्ती में गा रखी है

मौसम की गुफ़्तगू में सरसों का गीत गूँजा
हर फूल की हँसी ने दिल को लुभा रखी है

जन्नत सी लग रही है मद-मस्त ये समाँ अब
ख़ुशबू-ए-पैरहन से महका फ़िज़ा रखी है

पीला लिबास ओढ़े आई हो पास जब से
सरसों की क़ुर्बतों ने रुत को खिला रखी है

सरसों की छाँव में जो बैठा था इक मुसाफ़िर
राहत की हर कली ने उसको रुला रखी है

मुस्कान तेरी है या सरसों का रंग है ये
किसने ये हर कली पे ख़ुशबू लुटा रखी है

है शाख़ पे नवाज़िश पुर-हुस्न सारे गुल हैं
रुत ने बहार में सब ग़म को भुला रखी है

बाग़-ए-इरम के जैसे पुर-नूर बज़्म-ए-रंगीं
तस्वीर ख़ूबसूरत रब ने बना रखी है

अरमान इस नज़ारे में डूब कर लगा यूँ
जैसे ज़मीन पर ही जन्नत को ला रखी है

  - Arman Habib

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