बात यह अक़्ल में कब आएगी नादानों की,
मिट नहीं सकती है हस्ती तेरे दीवानों की
दीन की रस्सी को थामे रहें मज़बूती से,
ज़िम्मेदारी है यही आज मुसलमानों की
कौन समझाये इन्हें ठीक नहीं यह क़ुर्बत,
शमअ कहते हैं जिसे मौत है परवानों की
देखना ये है तेरा किस प करम नाज़िल हो,
भीड़ है आज तेरी बज़्म में दीवानों की
उसकी डोली को कहारों ने दिए हैं कांधे,
हम इधर लाश उठाते रहे अरमानों की
है ज़माना जो मुख़ालिफ़ तो रहे, क्या अफ़सोस
क्या कभी ज़ख्म से बनती है नमक़दानों की
चल रिहाई न सही क़द्र तो कर कम से कम,
हम परिंदों से है ज़ीनत तेरे ज़िंदानों की
हम किसी शाह की चौखट के नहीं हैं मुहताज,
दाद मिलती है हमें बज़्म में दीवानों की
हम से टकराया जो, लौटा है वह उल्टे क़दमों,
बात साहिल से न कर मौज़ की तूफानों की
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