किताब-ए-ज़ीस्त में ऐसा कोई भी बाब नहीं
तुम्हारे इश्क़ का जिस पर लिखा हिसाब नहीं
शराब-ख़ाने में दो बूँद भी शराब नहीं
हमारे वास्ते इससे बड़ा अज़ाब नहीं
हुई ये ज़िंदगी तारीक रात के मानिंद
तू माहताब नहीं मैं भी आफ़ताब नहीं
नई हयात में ढलना पड़ेगा अब इस को
ये ज़िंदगी तो मुहब्बत में कामयाब नहीं
तू अपनी आँखों का चश्मा बदल के देख मुझे
जहान जितना है उतना तो मैं ख़राब नहीं
हमें भी तर्क-ए-त'अल्लुक़ का ख़ाक हो अफ़सोस
बिछड़ के हम से तुम्हें भी तो इज़्तिराब नहीं
ये मय-कदा है यहाँ है हर एक शख़्स क़ुबूल
कोई शरीफ़ नहीं है कोई ख़राब नहीं
ख़िज़ाँ ने कौन सी तरतीब से किया बर्बाद
किसी भी शाख़ पे गुलशन में इक गुलाब नहीं
करो तबाह मुझे तुम भी इश्क़ में बे-हेच
है इससे बढ़ के कहीं भी कोई मुसाब नहीं
ब-राह-ए-इश्क़-ए-ग़ज़ाला कहे भी क्या 'साहिल'
सहा न मैं ने जिसे हो कोई अजाब नहीं
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