इस सुकूत-ए-हिज्र में लगती है शहनाई ग़ज़ल

  - Avtar Singh Jasser

इस सुकूत-ए-हिज्र में लगती है शहनाई ग़ज़ल
इस फ़ितूर-ए-इश्क़ में क्या क्या न कहलाई ग़ज़ल

ख़ूबसूरत, बाअदब और दिलनशीं किरदार की
हू-ब-हू तुझ सी सनम कल ख़्वाब में आई ग़ज़ल

कितने सजदे कर लिए और कितने रोज़े रख लिए
तब कहीं जा के मुक़द्दर में मेरे आई ग़ज़ल

ख़्वाब में भी ख़्वाब तक हासिल न था जिसका मुझे
उस बुलंदी तक हक़ीक़त में मुझे लाई ग़ज़ल

कितनी कोशिश कर रहा हूँ, कितनी कोशिश कर चुका
पर अभी तक भी मुकम्मल हो नहीं पाई ग़ज़ल

सारे अफ़साने पुराने याद आने लग गए
वक़्त ने कुछ इस अदा से आज दोहराई ग़ज़ल

हम भले उस गर्दिश-ए-दौराँ जस्सर चुप रहे
पर हमारे हौसलों ने तो सदा गाई ग़ज़ल |

  - Avtar Singh Jasser

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