जिन रस्तों से बच के चलना चाहूँ मैं

  - Avtar Singh Jasser

जिन रस्तों से बच के चलना चाहूँ मैं
जाने-अनजाने उन पे आ जाऊँ मैं

देख रहा हूँ तुम तक जाते रस्तों को
सोच रहा हूँ तुम तक कैसे आऊँ मैं ?

कितनी मुद्दत-बाद मिली हो तुम मुझसे
तुम से पूछूँ या तुम को बतलाऊँ मैं ?

मैं ख़ालिक़ हूँ क़दम-क़दम पे मंज़िल का
भटके रस्तों को मंज़िल तक लाऊँ मैं

तू मुझ में मुझ से भी ज़्यादा शामिल है
तेरी ऐसी बातों पे इठलाऊँ मैं

मेरी आँखों में आँखों को डाल ज़रा
आ तेरा चहरा तुझ को दिखलाऊँ मैं

जो मेरी उल्फ़त के क़ाबिल हो “जस्सर”
तुझ सा कोई और कहाँ से लाऊँ मैं

  - Avtar Singh Jasser

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