तुझ से रूठे तो कई रोज़ न ख़ुद से बोले
बारहा तेरी ही यादों के दरीचे खोले
तू भी ख़ामोश है तस्वीर भी तेरी ख़ामोश
कोई तो बात करे कोई तो हमसे बोले
मेरी तख़’ईल मिरी ज़ात से आगे न बढ़ी
तेरी आँखों ने कई भेद जहाँ के खोले
मेरी तौफ़ीक़ भी कम है मिरी औक़ात भी कम
क्या ज़रूरी है कि वो आँख मुझी को तोले
आज की रात तो जी भर के हमें रोना हैं
जिसको सोना है बड़े शौक़ से जाए सो ले
हमने तो रोज़ ही माँगी हैं दुआएँ लेकिन
न कभी हाथ उठाए न कभी लब खोले
ज़ौक़-ए-परवाज़ ही काफ़ी था उड़ानों के लिए
न कभी पंख ये खोले न इरादे तोले
मेरे बारे में भला मौत की मंशा क्या है
सोचती होगी वो आए मिरा घूँघट खोले
लोग मुश्ताक़ भी हैं गोश-बर-आवाज़ भी हैं
क्यूँ 'बशर’ ऐसे में अब कोई ज़ुबाँ को खोले
As you were reading Shayari by Dharmesh bashar
our suggestion based on Dharmesh bashar
As you were reading undefined Shayari