न जाने कैसे हैं आए मौसम हवा भी कैसी ये चल रही है
चमन मुहब्बत के उजड़े उजड़े वफ़ा की रंगत बदल रही है
गुज़र रही है ये रात काली उभर रही है शफ़क़ की लाली
उफ़क़ के चेहरे से रफ़्ता रफ़्ता नक़ाब-ए-ज़ुल्मत फिसल रही है
ये बारिशों में घुले नज़ारे दिखाई देते हैं कितने प्यारे
लगे कि जैसे हसीन क़ुदरत नहा के कपड़े बदल रही है
हुई है मुद्दत कि उसके आगे कभी सँवारा था ख़ुद को उसने
तज़ल्लियों की शुआ अभी तक उस आइने से निकल रही है
भला मुहब्बत का है असर क्या जो दीदा-वर हैं उन्हें ख़बर क्या
गई है साहिल को चूम कर जो वो मौज अब तक मचल रही है
परों की परवाज़ की हदों में फ़क़त फ़लक का है एक कोना
मगर ये परवाज़ हौसलों की फ़लक से आगे निकल रही है
समझ न पाए हो माँ की हस्ती अखर रही है जो उसकी सख़्ती
छुपोगे आँचल में तो लगेगा वो मोम जैसे पिघल रही है
बशर सुनाओ कि रूह-ओ-बातिन तग़ज्ज़ुल अपनी जगह है लेकिन
वो बात जिसकी है उससे निस्बत वही तो हुस्न-ए-ग़ज़ल रही है
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