मिटी ज़ुल्मत जो इस मन से तो फिर ये भेद जाना है
ख़ुदा की रौशनी से ही दरख़्शाँ ये ज़माना है
फिरे तू दर-ब-दर क्यूँ ढूँढ़ता है क्या शिलाओं में
जहाँ में हर बशर का दिल ही अल्लाह का ठिकाना है
मिलो हर युग में चाहे तुम बदल कर रूप अपना पर
ये नाता रूह का तुमसे मेरा सदियों पुराना है
समझते हैं जो इस तन को मकाँ अपना वो ये जानें
ये मिट्टी का खिलौना है जो इक दिन टूट जाना है
दिखा दे बूँद में सागर दिखाने पर ये आए तो
रसूले-पाक का कर्तब तो बस पर्दा उठाना है
तकब्बुर के नशे में चूर आदम सोचे है दिलबर
बड़ा उससे न दुनिया में कोई दूजा स्याना है
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