रम्ज़-ए-हद जब उभारता है कोई
ज़िंदगी दे के मारता है कोई
नाम देकर जिहाद क़त्ल-ए-आम
मौत जैसे उदारता है कोई
हार जाता है पूरा कुनबा ही
ज़िंदगी जब भी हारता है कोई
आइना वहम में है बरसों से
उसमें ख़ुद को सँवारता है कोई
हो के पर्दा-नशीं वो कहते हैं
यूँ किसी को निहारता है कोई
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