किस हुस्न से कहूँ मैं उस की ख़ुश-अख़तरी की
इस माह-रू के आगे क्या ताब मुश्तरी की
रखना न था क़दम याँ जूँ बाद बे-ताम्मुल
सैर इस जहाँ की रहरव पर तू ने सरसरी की
शुब्हा बहाल सग में इक उम्र सिर्फ़ की है
मत पूछ इन ने मुझ से जो आदमी-गरी की
पाए गुल उस चमन में छोड़ा गया न हम से
सर पर हमारे अब के मन्नत है बे-परी की
पेशा तो एक ही था उस का हमारा लेकिन
मजनूँ के तालेओं ने शोहरत में यावरी की
गिर्ये से दाग़-ए-सीना ताज़ा हुए हैं सारे
ये किश्त-ए-ख़ुश्क तू ने ऐ चश्म फिर हरी की
ये दौर तो मुआफ़िक़ होता नहीं मगर अब
रखिए बिना-ए-ताज़ा इस चर्ख़-ए-चम्बरी की
ख़ूबाँ तुम्हारी ख़ूबी ता-चंद नक़्ल करिए
हम रंजा-ख़ातिरों की क्या ख़ूब दिलबरी की
हम से जो 'मीर' उड़ कर अफ़्लाक-ए-चर्ख़ में हैं
उन ख़ाक में मलूँ की काहे को हमसरी की
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