मेरे रुख़सार से जुल्फ़ों को वो जब जब हटाता है
वो कहता है नज़र उसको मह-ए-ख़ुर्शीद आता है
लगा कर कान के पीछे मेरी आँखों का ही काजल
ज़माने की बुरी नज़रों से मुझको यूँ बचाता है
मुहब्बत मुद्दतों के बाद बिखरी है हथेली पर
हिना का रंग उसके इश्क़ की हद को बताता है
मैं हूँ इस सोच में हरदम कभी होगा मुकम्मल क्या
सुना है इश्क़ सच्चा हो तो कामिल हो न पाता है
सुनो तूफ़ाँ से दावानल को क्या बुझते कभी देखा
वही दीपक हवा का एक झोंका सह न पाता है
यही कहते हुए जब भी वो सर पर हाथ रखता है
मेरे अंदर का डर पल भर में जैसे खो ही जाता है
क़ज़ा आई थी कल मिलने उसे ये कह के रोका है
जनाज़ा एक लड़की का पिया के घर से जाता है
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