ये दौलत रुतबा शोहरत और ये ईमान मिट्टी है
लगाया हाथ तब जाना फ़लक बे-जान मिट्टी है
लगी जब आग पत्तों में शजर तब रो पड़ा ग़म में
कहा फिर शाख़ ने हर शय यहाँ नादान मिट्टी है
लिखूँ मैं फ़लसफ़े की शाइरी या गीत उल्फ़त के
मैं शाइर हूँ मिरी हर नज़्म का उनवान मिट्टी है
किताब-ए-हिज्र में मैं अब लिखूँगा वस्ल के क़िस्से
मुहब्बत में मिला है जो मुझे तावान मिट्टी है
नहीं मालूम हसरत से मैं मिट्टी देखता हूँ क्यों
मुझे शायद ख़बर है कल मेरी पहचान मिट्टी है
दिखाता खेल है सबको 'अज़ल' बन कर मदारी और
तमाशा देखता है जो वो हर इंसान मिट्टी है
~आशुतोष मिश्रा 'अज़ल'
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