नज़्म: मोहब्बतों के फूल
मैं जब कभी दिल की उदासियों से परेशान होकर
कोई ख़ुशी ढूॅंढता हूॅं तो तुम मिलते हो
मिलते हो उन हसीन ख़्वाबों में
जहाँ मेरी ही बनाई इक शांत दुनिया है
वो दुनिया जिसे मैं चाहता हूॅं कि वो
ख़्वाब से निकलकर बाहर आ जाए
आ जाए और ये दुनिया जहाँ हम रह रहे हैं
जिन उलझनों में उलझे हुए हम जीना भूल गए हैं
जहाँ अपने दिल की ख़ुशी के लिए
कुछ करना मानो इक जुर्म है
इस दुनिया से निकलकर
हम अपनी दुनिया में रहने लगें
रहने लगें जैसे चाँद के साथ में तारे रहते हैं
वैसे ही जैसे पानी में घुला हुआ पानी
वैसे ही जैसे आग के साथ धुआँ
वैसे ही जैसे बाती और लौ
वैसे ही जैसे जिस्म में रूह रहती है
दुख, तकलीफ़ों में भी खिल उठें
जिस तरह कीचड़ में कमल का फूल
फूल जिस पर मोहब्बत के लिए
दूर दूर से मक्खियाँ आती हैं
उसी तरह हम मिलकर इतनी मोहब्बत से रहें
कि शहद के जैसे ज़िंदगी की मिठास हो जाए
हो जाए सब इक गुलाब के जैसा
खिलखिलाता, मुस्कुराता, महकता, लुभाता,
ये ऐसा ख़्वाब है जो हक़ीक़त में चाहिए कि हक़ीक़त हो जाए
और मैं ख़ुदा से कहूॅं कि तेरी बनाई दुनिया से
तो मुझे दर्द, तकलीफ़, ग़म ही मिले हैं
मुझे बख़्श दे मेरे ख़्वाबों की वो दुनिया
जहाँ मेरी मोहब्बतों के फूल खिले हैं
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