जब कभी ख़ुद को अधूरा ढूँढ़ता हूँ
चश्म-ए-पुर-नम पर सितारा ढूँढ़ता हूँ
जंग में हारे से हारा ढूँढ़ता हूँ
इसलिए भी घाव गहरा ढूँढ़ता हूँ
मैं तिरी आँखें चुरा कर क्या ले आया
अब समुंदर का किनारा ढूँढ़ता हूँ
पूछ मत मुझसे मिरे महबूब तेरे
आगे पीछे क्या नज़ारा ढूँढ़ता हूँ
शाम को मैं आते जाते वक़्त अक्सर
तेरी खिड़की पर इशारा ढूँढ़ता हूँ
सारा दिन तेरी मिरी तस्वीर पर मैं
बस मोहब्बत का ख़सारा ढूँढ़ता हूँ
मक़्तल-ए-निय्यत में उल्फ़त को गॅंवा कर
ज़िंदगी का क़तरा क़तरा ढूँढ़ता हूँ
इस क़दर तू मिल रही है ढूँढने पर
मैं तुझे पाकर दुबारा ढूँढ़ता हूँ
इम्तिहान-ए-दहर में अब वक़्त दर वक़्त
बच निकलने का मैं फ़र्रा ढूँढ़ता हूँ
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