ख़ून-ए-ज़ख़्म-ए-ख़्वाब से पहले-पहल बू आएगी
फिर पसीने में उदासी मेरे पहलू आएगी
नाम पर उसके इधर जाने किधर से मेरे पास
एक इतराकर के बलखाकर के ख़ुश्बू आएगी
उस नदी का नाम सब उल्फ़त रखेंगे एक रोज़
जब मिरी ये आग तेरे बर्फ़ को छू आएगी
जो पहनता हो गुलों की ख़ाल को शाम-ओ-सहर
ग़ैर-मुमकिन है कि उसको अपनी ख़ुश्बू आएगी
ध्यान इतना दे दिया है तेरी आमद पर यहाँ
अब गुज़र जाने के तेरे बाद भी तू आएगी
रख लिया है सर पे सूरज तो बड़ा मग़रूर हूँ
देखना अब मेरी परछाई जो हर-सू आएगी
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