तो कभी ये ज़मीं आसमाँ की तलब
अब कहाँ ख़त्म होती जहाँ की तलब
बात कह के गुज़ारी यूँ ही रात भर
इश्क़ को भी कहाँ अब गुमाँ की तलब
आँख भी देखे जो और सिर ले झुका
दिल को है ऐसे ही रहनुमा की तलब
यार मुझको कमी एक है खल रही
ढूँढता दिल तो है दास्ताँ की तलब
वस्ल और हिज्र के कश्मकश में 'नवी'
मुझ को तो एक ऐसे मकाँ की तलब
Read Full