मिरी आरज़ू की हुदूद में ये फ़लक नहीं ये ज़मीं नहीं
मुझे बज़्म-ए-क़ुद्स में दे जगह जो वहाँ नहीं तो कहीं नहीं
है जबीं तो असल में वो जबीं कि झुके वहाँ तो झुकी रहे
तिरे आस्ताँ से जो उठ गई वो जबीं तो कोई जबीं नहीं
मिरे दिल की नज़्र क़ुबूल कर जो इशारा हो तो ये सर निसार
कि वफ़ा-ए-अहद की शर्त में कहीं दर्ज लफ़्ज़ नहीं नहीं
ये अरब भी है मिरे रू-ब-रू ये अजम भी है मिरे सामने
मिरी जुस्तुजू को यक़ीन है कहीं तुझ सा कोई हसीं नहीं
तिरे कुंद तेशे से राह-रौ ये चटान कैसे कटे भला
तिरे हाथ यख़ तिरे पाँव शल तिरे दिल में सोज़-ए-यक़ीं नहीं
ये जो बंदगी है 'उरूज' की तिरी ज़िंदगी से है क़ीमती
न हो बंदगी तो फ़ुज़ूल है कोई वज़्न उस का कहीं नहीं
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