Urooj Qadri

Urooj Qadri

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Urooj Qadri shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Urooj Qadri's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
  • Nazm
ये है कौन सी हिकायत ये है कौन सा तराना
न शिकायत-ए-ग़म-ए-दिल न हिकायत-ए-ज़माना

वो असर भरी नसीहत वो कलाम-ए-आरिफ़ाना
कि लगा रहा हो जैसे कोई दिल पे ताज़ियाना

जिसे काफ़िरी से रग़बत जिसे ज़ौक़-ए-मुल्हिदाना
उसे क्यूँ पसंद आए रह-ओ-रस्म-ए-मोमिनाना

है सितम की धुंद छाई है जफ़ा की फ़स्ल आई
है चमन पे ऐसा पहरा कि क़फ़स है आशियाना

मुझे याद आ रही हैं तिरी महफ़िलों की बातें
वो शिकायतों का दफ़्तर वो हिकायत-ए-शबाना

तिरे हुक्म से अलग हो तिरे नूर से जुदा हो
मिरी ज़िंदगी में बाक़ी नहीं ऐसा कोई ख़ाना

नज़र-ए-करम से मुझ को कभी देख ले वो शायद
मिरे दिल की आरज़ू है वो जमाल-ए-जावेदाना

है 'उरूज' ये सआ'दत ये है जेल की मसर्रत
कि तिहाड़ में अदा हो तिरी ईद का दोगाना
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Urooj Qadri
हो जाते हैं जब अपने मरीज़ों से ख़फ़ा और
करते हैं वो ईजाद सितम और जफ़ा और

ऐ ज़ुल्म सरापा कभी इस पर भी नज़र कर
क्या मेरा ख़ुदा और है तेरा है ख़ुदा और

मुश्किल है बताना कि है क्या फ़र्क़ मगर है
लैला की अदा और है मजनूँ की अदा और

तस्लीम कि दुनिया ही में है जेल भी लेकिन
अंदर की फ़ज़ा और है बाहर की फ़ज़ा और

कहता है ये क़ैदी कि हवा एक नहीं है
बाहर की हवा और है अंदर की हवा और

मोमिन के लिए जेल है दुनिया-ए-दुनी भी
दुनिया की फ़ज़ा और है उक़्बा की फ़ज़ा और

बीमार-ए-मसर्रत की दवा ऐश की लज़्ज़त
बीमार-ए-मोहब्बत का मरज़ और दवा और

अल्लाह करे तुझ को तिरे नूर से आगाह
महफ़िल का दिया और तिरे दिल का दिया और

अंजाम-ए-मोहब्बत से उरूज अपने है वाक़िफ़
ता-ज़ीस्त है क़िस्मत में जफ़ा और बला और
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Urooj Qadri
ये इश्क़ की है राह न यूँ डगमगा के चल
हिम्मत को अपनी तोल क़दम को जमा के चल

राह-ए-वफ़ा है इस में न यूँ मुँह बना के चल
काँटों को रौंद रौंद के तू मुस्कुरा के चल

शम-ए-यक़ीं की लौ को ज़रा और तेज़ कर
ज़ुल्मत में रहरवों को भी रस्ता दिखा के चल

गर्दिश फ़लक की तेज़ है रफ़्तार तेरी सुस्त
मंज़िल है दूर अपने क़दम अब बढ़ा के चल

दुश्मन जो दोस्त के हैं वो नाराज़ हैं तो हों
सीने पे ज़ख़्म उन की जफ़ाओं का खा के चल

तीरों की बाढ़ आने दे अपने क़दम न रोक
उन की ख़ुशी यही है तू ख़ूँ में नहा के चल

बहता है ख़ूँ तो बहने दे बहने की चीज़ है
क़तरों से ख़ून-सुर्ख़ के गुलशन खिला के चल

हिम्मत के जाम सब्र के मीना से नोश कर
नक़्श-ए-क़दम से अपने तू रस्ता बना के चल

जलता रहे बस उस की तमन्ना का इक दिया
उस के सिवा हैं जितने दिए सब बुझा के चल

ऐ मीर-ए-कारवाँ तिरी ख़िदमत में अर्ज़ है
जो गिर रहे हैं राह में उन को उठा के चल

रस्ता कठिन है तू है बहुत ना-तवाँ 'उरूज'
सुल्तान-काएनात को हामी बना के चल
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Urooj Qadri
मिरी आरज़ू की हुदूद में ये फ़लक नहीं ये ज़मीं नहीं
मुझे बज़्म-ए-क़ुद्स में दे जगह जो वहाँ नहीं तो कहीं नहीं

है जबीं तो असल में वो जबीं कि झुके वहाँ तो झुकी रहे
तिरे आस्ताँ से जो उठ गई वो जबीं तो कोई जबीं नहीं

मिरे दिल की नज़्र क़ुबूल कर जो इशारा हो तो ये सर निसार
कि वफ़ा-ए-अहद की शर्त में कहीं दर्ज लफ़्ज़ नहीं नहीं

ये अरब भी है मिरे रू-ब-रू ये अजम भी है मिरे सामने
मिरी जुस्तुजू को यक़ीन है कहीं तुझ सा कोई हसीं नहीं

तिरे कुंद तेशे से राह-रौ ये चटान कैसे कटे भला
तिरे हाथ यख़ तिरे पाँव शल तिरे दिल में सोज़-ए-यक़ीं नहीं

ये जो बंदगी है 'उरूज' की तिरी ज़िंदगी से है क़ीमती
न हो बंदगी तो फ़ुज़ूल है कोई वज़्न उस का कहीं नहीं
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Urooj Qadri
मैं बताऊँ इश्क़ क्या है एक पैहम इज़्तिराब
धीमी धीमी आँच कहिए या मुसलसल इल्तिहाब

रात वो आए थे चेहरे से नक़ाब उल्टे हुए
मैं तो हैराँ था निकल आया किधर से आफ़्ताब

दिल पे उन के रू-ए-रौशन का पड़ा है जब से अक्स
दिल नहीं है बल्कि सीने में है रौशन माहताब

उन के दीवानों का इस्तिक़बाल है दार-ओ-रसन
खिंच गया जो दार पर उन के लिए वो कामयाब

क्या मिरी हम्द-ओ-सना और क्या मिरा शुक्र-ओ-सिपास
उन के एहसाँ बे-शुमार और उन की ने'मत बे-हिसाब

रात का पिछ्ला पहर था और आँसू की झड़ी
मेरा दिल था शायद उन की बारगह में बारयाब

इश्क़ की दुनिया में ऐसे हादसों से क्या मफ़र
आया क़ासिद का जनाज़ा मेरे नामे का जवाब

ये महल मेरी तमन्नाओं का ऐ ‘अहमद-उरूज'
जैसे बच्चों का घरौंदा जैसे दीवाने का ख़्वाब
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Urooj Qadri
शहीदों का तिरे शोहरा ज़मीं से आसमाँ तक है
फ़लक से बल्कि आगे बढ़ के तेरे आस्ताँ तक है

जमाल-ए-जाँ-फ़िज़ा का उन के दिलकश दिल-रुबा जल्वा
ज़मीं से आसमाँ तक है मकाँ से ला-मकाँ तक है

रहें सब मुतमइन गुलशन में अपने आशियानों से
कि जौलाँ-गाह बिजली की हमारे आशियाँ तक है

नसीहत पर अमल ख़ुद भी तो करना चाहिए वाइज़
असर क्या हो कि तेरा वा'ज़ तो नोक-ए-ज़बाँ तक है

मुसलमानी फ़क़त तस्बीह-ख़्वानी ही नहीं हमदम
मुसलमानी का लम्बा हाथ शमशीर-ओ-सिनाँ तक है

बुढ़ापा फ़िक्र पर आए तो नक्बत साथ आती है
तरक़्क़ी और अज़्मत क़ौम की फ़िक्र-ए-जवाँ तक है

फ़क़त दुनिया ही उस की गूँज का हल्क़ा नहीं हरगिज़
तिरी हम्द-ओ-सना की गूँज गुलज़ार-ए-जिनाँ तक है

मैं हूँ पैग़ाम-ए-हक़ इस्लाम मेरा नाम-ए-नामी है
जहाँ तक है ये दुनिया मेरा हल्क़ा भी वहाँ तक है

वही अल्फ़ाज़ हैं मौज़ूँ अगर हों शे'र होते में
हक़ीक़त शाइ'री के फ़न की बस हुस्न-ए-बयाँ तक है

तवील इतनी है ज़ंजीर-ए-असीरी इस ज़माने में
कि हाज़िर क़ैद-ख़ाने में ‘उरूज’-ए-ना-तवाँ तक है
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Urooj Qadri
आप क्या जानें मोहब्बत का तमाशा क्या है
शो'ला-ए-इश्क़ किसे कहते हैं सौदा क्या है

कोई ख़ुश है कोई ना-ख़ुश कोई शाकी तुझ से
कौन जाने कि तिरी बज़्म का क़िस्सा क्या है

साग़र-ए-महर-ओ-वफ़ा दौर में था सुब्ह-ओ-मसा
जाने अब मज्लिस-ए-अहबाब का नक़्शा क्या है

इल्म-ए-तक़दीर पे मौक़ूफ़ नहीं मेरा अमल
कौन जाने मिरी तक़दीर का लिक्खा क्या है

जिस के इमरोज़ में बाक़ी न रहे रूह-ए-हयात
साफ़ ज़ाहिर है कि उस क़ौम का फ़र्दा क्या है

जगमगाते ये सितारे ये फ़लक के खे़मे
'तू' ने पर्दे तो ये देखे पस-ए-पर्दा क्या है

कारसाज़ी पे ख़ुदा की है भरोसा वर्ना
मैं अगर जान लड़ाऊँ भी तो होता क्या है

सर हथेली पे लिए फिरते हैं जो लोग 'उरूज'
उन से पूछो कि मोहब्बत का तरीक़ा क्या है
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Urooj Qadri
तसव्वुरात की दुनिया बसा रहा हूँ मैं
तिरे ख़याल से तस्कीन पा रहा हूँ मैं

ख़याल-ओ-वहम से ऊँची बहुत है तेरी ज़ात
तिरी सिफ़ात का नक़्शा जमा रहा हूँ मैं

मिरा वजूद भी परतव है तेरी हस्ती का
दिल-ए-हज़ीं में तिरा नूर पा रहा हूँ मैं

ये कौन है कि मअय्यत का लुत्फ़ हासिल है
तमाम आलम-ए-इम्काँ पे छा रहा हूँ मैं

तिरे करम की निहायत नहीं मिरे मालिक
कि मुश्त-ए-ख़ाक को कुंदन बना रहा हूँ मैं

जिलौ में जिस की हो अम्न-ओ-सुकूँ की गुल-पाशी
वो इंक़लाब ज़माने में ला रहा हूँ मैं

तिरे कलाम-ए-मुक़द्दस से रौशनी ले कर
अँधेरी रात में शमएँ जला रहा हूँ मैं

मिरी बिसात ही क्या है जहाँ के रखवाले
तिरे सहारे पे हिम्मत दिखा रहा हूँ मैं
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Urooj Qadri
उस सीने की वक़अत ही क्या है जिस सीने में तेरा नूर नहीं
उस कासा-ए-सर की क्या क़ीमत जो संग-ए-जुनूँ से चूर नहीं

उस दिल को कोई क्यूँ दिल माने जो जज़्ब-ओ-जुनूँ से ख़ाली हो
उस शम्अ को हम क्यूँ शम्अ कहें जो परतव-ए-शम्अ-ए-तूर नहीं

ये कैफ़-ओ-नशात अफ़ज़ा रातें ये ऐश-ओ-तरब की सौग़ातें
जिस शय के एवज़ में मिलती हैं उस शय का ज़ियाँ मंज़ूर नहीं

मुर्दा भी नहीं ये ज़िंदा है मालिक भी नहीं ये बंदा है
इंसान निराली ख़िल्क़त है मुख़्तार नहीं मजबूर नहीं

इंसान की अज़्मत उस पे फ़िदा इक बंदा-ए-ख़ाकी वो भी था
जो अर्श-ए-इलाही छू आया फिर भी वो ज़रा मग़रूर नहीं

उस जान-ए-जहाँ की ख़ुशनूदी मतलूब-ए-जुनूँ मक़्सूद-ए-सफ़र
सोचो तो ये मंज़िल दूर भी है सोचो तो ये मंज़िल दूर नहीं

हो शौक़-ए-सफ़र तो राह-ए-सफ़र हर सम्त खुली है तेरे लिए
दिल तेरा तलब से ख़ाली है तू वर्ना यहाँ मा'ज़ूर नहीं

हम पर वो ‘उरूज’-ए-ख़स्ता-जिगर तलवार उठाते हैं लेकिन
उस वार से तस्कीं क्या होगी जो वार अभी भरपूर नहीं
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Urooj Qadri