Yaqoob Aamir

Yaqoob Aamir

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Yaqoob Aamir shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Yaqoob Aamir's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
नज़रों में कहाँ उस की वो पहला सा रहा मैं
हँसता हूँ कि क्या सोच के करता था वफ़ा मैं

तू कौन है ऐ ज़ेहन की दस्तक ये बता दे
हर बार की आवाज़ पे देता हूँ सदा मैं

याद आता है बचपन में भी उस्ताद ने मेरे
जिस राह से रोका था वही राह चला मैं

जी ख़ुश हुआ देखे से कि आज़ाद फ़ज़ा है
बस्ती से गुज़रता हुआ सहरा में रुका मैं

मुद्दत हुई देखे हुए वो शहर-ए-निगाराँ
ऐ दिल कहीं भूला तो नहीं तेरी अदा मैं

मंज़िल की तलब में न था आसान गुज़रना
पत्थर थे बहुत राह में गिर गिर के उठा मैं

क्या दिन हैं कि अब मौत की ख़्वाहिश है बराबर
क्या दिन थे कि जब जीने की करता था दुआ मैं

सच कहियो कि वाक़िफ़ हो मिरे हाल से 'आमिर'
दुनिया है ख़फ़ा मुझ से कि दुनिया से ख़फ़ा मैं
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Yaqoob Aamir
क्या हुआ हम से जो दुनिया बद-गुमाँ होने लगी
अपनी हस्ती और भी नज़दीक-ए-जाँ होने लगी

धीरे धीरे सर में आ कर भर गया बरसों का शोर
रफ़्ता रफ़्ता आरज़ू-ए-दिल धुआँ होने लगी

बाग़ से आए हो मेरा घर भी चल कर देख लो
अब बहारों के दिनों में भी ख़िज़ाँ होने लगी

चंद लोगों की फ़राग़त शहर का चेहरा नहीं
ये हक़ीक़त सब के चेहरों से अयाँ होने लगी

याद है अब तक किसी के साथ इक शाम-ए-विसाल
फिर वो रातें जब दम-ए-रुख़्सत अज़ाँ होने लगी

बाद-ए-नफ़रत फिर मोहब्बत को ज़बाँ दरकार है
फिर अज़ीज़-ए-जाँ वही उर्दू ज़बाँ होने लगी

ज़िक्र तूफ़ान-ए-हवादिस का छिड़ा जो एक दिन
होते होते दास्ताँ मेरी बयाँ होने लगी

सख़्त मंज़िल काट कर हम जब हुए कुछ सुस्त-पा
तेज़-रौ कुछ और भी उम्र-ए-रवाँ होने लगी

छू रही है आसमानों की बुलंदी फिर नज़र
फिर हमारी ज़िंदगी अंजुम-निशाँ होने लगी

लो यक़ीं आया कि दिल के दर्द की तासीर है
अब तो इक इक चीज़ हम से हम-ज़बाँ होने लगी

घर की मेहनत से मिरी रौशन हुए ऐवान-ए-ज़र
रौशनी होनी कहाँ थी और कहाँ होने लगी

सच कहूँ 'आमिर' कि अब उस दौर में जीते हो तुम
रस्म-ए-उल्फ़त भी जहाँ सूद ओ ज़ियाँ होने लगी
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Yaqoob Aamir
आतिश-ए-ग़म में भभूका दीदा-ए-नमनाक था
आँसुओं में जो ज़बाँ पर हर्फ़ था बेबाक था

चैन ही कब लेने देता था किसी का ग़म हमें
ये न देखा उम्र भर अपना भी दामन चाक था

हम शिकस्ता-दिल न बहरा-मंद दुनिया से हुए
वर्ना इस आलूदगी से किस का दामन पाक था

जौहर-ए-फ़न मेरा ख़ुद मेरी नज़र से गिर गया
हर्फ़-ए-दिल पर भी ज़माना किस क़दर सफ़्फ़ाक था

रात की लाशों का कूड़ा सुब्ह-दम फेंका गया
क्या हमारे दौर का इंसाँ ख़स-ओ-ख़ाशाक था

कितना ख़ुश होता था पहले आसमाँ ये देख कर
जो तमाशा था जहाँ में वो तह-ए-अफ़्लाक था

मेरा दुश्मन जब हुआ राज़ी तो हैरानी हुई
मेरे आगे और भी इक रू-ए-हैबतनाक था

कितनी बातें थीं हमारे ज़ेहन का हिस्सा मगर
तजरबे के बाद उन का और ही इदराक था

ख़ू-ए-इंसाँ को अज़ल से ही ये दुनिया तंग है
जो वरक़ तारीख़ का देखा वो इबरतनाक था

हम जो आ बैठे कभी तो तन में काँटे ही चुभे
साया-ए-गुल भी हमें कितना अज़ीयत-नाक था

जल्वा-ए-फ़ितरत नुमायाँ है लिबास-ए-रंग में
हुस्न हर तहज़ीब में मिन्नत-कश-ए-पोशाक था

सर के नीचे ईंट रख कर उम्र भर सोया है तू
आख़िरी बिस्तर भी 'आमिर' तेरा फ़र्श-ए-ख़ाक था
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Yaqoob Aamir
चंद घंटे शोर ओ ग़ुल की ज़िंदगी चारों तरफ़
और फिर तन्हाई की हम-साएगी चारों तरफ़

घर में सारी रात बे-आवाज़ हंगामा न पूछ
मैं अकेला नींद ग़ाएब बरहमी चारों तरफ़

देखने निकला हूँ अपना शहर जंगल की तरह
दूर तक फैला हुआ है आदमी चारों तरफ़

मेरे दरवाज़े पे अब तख़्ती है मेरे नाम की
अब न भटकेगी मिरी आवारगी चारों तरफ़

मेरे घर में ही रहा ता-उम्र मेरा वाक़िआ
अपनी अपनी वर्ना अर्ज़-ए-वाक़ई चारों तरफ़

चाँदनी रातों की बस्ती में हूँ मैं सहमा हुआ
ख़ौफ़ से लिपटी हुई है रौशनी चारों तरफ़

है कोई चेहरा शनासा ढूँडता हूँ भीड़ में
इतनी रौनक़ में भी इक बे-रौनक़ी चारों तरफ़

पहले मेरी बात हँस कर टाल भी देते थे वो
लेकिन अब तस्दीक़ मेरी बात की चारों तरफ़

बज़्म में यूँ तो सभी थे फिर भी 'आमिर' देर तक
तेरे जाने से रही इक ख़ामुशी चारों तरफ़
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