हम खोज ही रहे थे इस ज़िंदगी के सानी
इतने में मिल गए तुम बन कर के ज़िंदगानी
छत पर वो आ गई है मौसम बदल रहा है
अब रंग खुल रहा है हल्का सा आसमानी
दोनों तरफ हमारी मुट्ठी भरी हुई है
इस हाथ में कलम है उस हाथ में किसानी
कहते हैं आज उसने ग़लती क़ुबूल की है
सुनते हैं आज उसकी आँखें हुई हैं पानी
माँ-बाप के बुढ़ापे में काम ग़र न आए
किस काम का ये जीवन किस काम की जवानी
ये इश्क़ है हमारा बिजली का बिल नहीं है
हर बार टालते हो गढ़ कर नयी कहानी
दुनिया ग़ज़ल हमारी सुनती रहेगी लेकिन
इक नज़्म आपको भी फ़ुर्सत में है सुनानी
तोहफ़े में जिसने मुझको छल्ला कभी दिया था
वो इश्क़ आख़िरी था वो आख़िरी निशानी
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