हर इक आँसू का हक़ मुझ को चुकाना है
ग़ज़ल से अब मुझे पैसा कमाना है
किसी की भी हिकायत ये नहीं सुनता
बड़ा बेदर्द ये जाहिल ज़माना है
करूँ मैं इल्तिजा कोई ख़ुदा से क्यूँ
न आया है मिरा नंबर न आना है
मोहब्बत थी तिजारत थी ख़ुदा जाने
मगर फिर से नहीं अब दिल लगाना है
नहीं है दौड़ ये कोई मगर फिर भी
न जाने क्यूँ तुम्हें मुझ को हराना है
ये हर इंसान को पागल समझते हैं
मुझे लोगों को पागल-पन दिखाना है
सहाफ़ी तू कभी तो मुख़बिरी कर दे
बड़ा बेहाल हूँ उस को बताना है
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