ये ज़िंदगी तमाम बिता दी है प्यास में
फिर क्यों हर एक रात बिताते हैं आस में
मैं घोल कर के ज़िंदगी को पी गया हूँ यूँ
पूरी किताब बस गई है इक़्तिबास में
तुम जाम माँगते हो बड़ी छोटी चीज़ है
मैं धड़कनें रखूँ जो कहो इस गिलास में
सब यार सोचते थे रहेगा वही समाँ
इक मैं ही बस बचा हूँ कोई सौ पचास में
हमने भी तो निकाले हैं नासूर काट कर
हमने भी दिन गुज़ारे हैं काले लिबास में
वो शेर जिसको सुनके सभी लोग ग़मज़दा
वो शेर तो लिखा था कोई चौथी क्लास में
इन आजकल के होटलों में बात वो कहाँ
जो बात यार गाँव के गुड़ की मिठास में
कैसे अमान अब ये सुधर जाएँ आदतें
हमने बिताए दिन हैं ख़राबों के पास में
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