निकहत-ए-गुल आज-कल मुझ को सताती है बहुत
एक लड़की ख़्वाब में आ कर जगाती है बहुत
एक तिल जो गाल पर है मोजिज़ा सा है कोई
आब्शारों जैसी उसकी ज़ुल्फ़ भाती है बहुत
हैं ख़ुतूत-ए-जिस्म में तारे जड़े जैसे कई
वो हसीं जान-ए-जिगर मुझको लुभाती है बहुत
वो अगर हँस दे तो मैं लिख दूँ क़सीदे चाँद तक
इश्क़ करने का सलीक़ा वो सिखाती है बहुत
दरमियाँ हैं फ़ासले ये जानते हैं हम मगर
रात भर फिर भी हमें वो याद आती है बहुत
चाहता हूँ ज़िन्दगी भर मुस्कुराती वो रहे
देख कर उस की उदासी जान जाती है बहुत
ऐ अमान अब क्या करूँ उसको मनाने के लिए
रूठ कर मुझसे वो मेरा दिल जलाती है बहुत
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