छोड़ा है घर अपना किसी ने फिर कमाने चल पड़ा
उसको नहीं है कुछ ख़बर क्या क्या गँवाने चल पड़ा
रौनक़ नहीं होती है त्यौहारों पे आ घर मेरा देख
स्टेटस लगा कर फ़ोन पर अपने सिरहाने चल पड़ा
बीमार होगा बाप उसका पर बताएगा नहीं
सोचा था कैसे फ़र्ज़ अब कैसे निभाने चल पड़ा
आँसू लिए आँखों में कब तक राह देखेगा कोई
थक हार कर महबूब भी ग़ैरों के शाने चल पड़ा
ये शहर कब किसका हुआ है सबको अपनाता है ये
अपना पराया जान किस पे हक़ जताने चल पड़ा
जब भीड़ में तन्हा दिखेगी ज़िन्दगी सोचेगा तब
क्या चाहिए था ज़िन्दगी से क्या ही पाने चल पड़ा
As you were reading Shayari by Divu
our suggestion based on Divu
As you were reading undefined Shayari