भरोसा ज़िंदगी का क्या न जाने कब बदल जाए
पराए आदमी का क्या न जाने कब बदल जाए
उतरते वक़्त पानी में किनारे पास ही रखना
किसी बहती नदी का क्या न जाने कब बदल जाए
छुपाकर रख रखा है दुख कि कल को काम आएगा
घड़ी भर की ख़ुशी का क्या न जाने कब बदल जाए
मई की धूप में भी हम निकलते हैं लिए छाता
हवा की बे-रुख़ी का क्या न जाने कब बदल जाए
बरसती हैं अगर ये आज तो खुलकर बरसने दो
इन आँखों की नमी का क्या न जाने कब बदल जाए
न जाने कब हवा बनकर चली आए सदा दर पर
क़ज़ा की ख़ामुशी का क्या न जाने कब बदल जाए
किसी दिन फिर मुहब्बत रास आएगी तुम्हें 'जानिब'
कि इस बे-दिल-लगी का क्या न जाने कब बदल जाए
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