रंज-ओ-ग़म की इब्तिदाई हो गई है
हिज्र से भी हम-नवाई हो गई है
दश्त से अब आश्नाई हो गई है
वस्ल से यानी रिहाई हो गई है
इस तरह के तर्क़ दे कर कुछ न होगा
हो गई है जग-हँसाई हो गई है
लम्स तेरा फिर हुआ महसूस मुझको
उँगलियाँ फिर से हिनाई हो गई है
आइने में सिर्फ़ तुझको देखती है
आँखें भी हमसे पराई हो गई है
बाद तेरे जाने के और क्या ही होता
बस कि हर इक से लड़ाई हो गई है
दफ'अतन तेरी हँसी क्या याद आई
आँखें मेरी डबडबाई हो गई है
इक अधूरे ख़्वाब का अंजाम है ये
रोज़ की ही रत-जगाई हो गई है
याद करते करते तुझको सैकड़ों बार
चाँद से दीदा-दराई हो गई है
इक तेरी तस्वीर रक्खी है मेरे पास
ज़िन्दगी भर की कमाई हो गई है
इस दफ़ा भी गर्मियाँ तन्हा ही गुज़री
देख लो फिर से जुलाई हो गई है
क्या रहा इसके अलावा हासिल-ए-इश्क़
इश्क़ में बस ख़ुद-फ़नाई हो गई है
नाम से तेरे पुकारा जाता हूँ मैं
दिल्लगी की इंतिहाई हो गई है
सामने से मुस्कुरा कर चल दिए बस
हाए कितनी बे-हयाई हो गई है
साथ किसके बाँटिए झाला ग़म अपना
सब की ही फितरत क़साई हो गई है
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