आदमी ये क्यों समझ पाया नहीं
ता क़यामत चलती ये काया नहीं
क्या हुआ जो यार हँस पाया न मैं
हाँ मगर ग़म को किया जाया नहीं
शह्र तो पहले से ही वीरान था
गाँव में भी पेड़ की छाया नहीं
कैसे चलता होगा उस बच्चे का घर
जिसके सर पर बाप का साया नहीं
रो पड़ी ये सोचकर बीमार माँ
देखने बेटा मेरा आया नहीं
राम ने मस्जिद कोई तोड़ी नहीं
शैख ने मन्दिर कोई ढ़ाया नहीं
बेच देंगे ये लुटेरे मुल्क को
ये हक़ीक़त है कोई माया नहीं
तान छेड़ी है मुख़ालिफ़ ज़ुल्म के
राग दरबारी कभी गाया नहीं
आधी रोटी खाई पर ईमान की
बेचकर ईमान कुछ खाया नहीं
दार पर चढ़ जाऊँगा सच बोलकर
झूठ का चेहरा मुझे भाया नहीं
हर क़दम पर चोट खाई है कुमार
मुँह मगर इक दिन भी लटकाया नहीं
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