गई इस रुत तलक मेरा भी इक ग़म-ख़्वार था कोई

  - Muntazir shrey

गई इस रुत तलक मेरा भी इक ग़म-ख़्वार था कोई
अजब इस हद तलक ज़ेर-ए-असर मेरे रहा कोई

मुयस्सर वो किसी को अब हुआ तो है मगर मुझ को
न था मंज़ूर उसके ख़्वाब तक भी देखता कोई

नहीं रोज़-ए-अज़ल से ख़ामुशी मेरी पसंदीदा
रहा हमराज़ वो मेरा था मुझ से आश्ना कोई

कहीं वो ज़िंदगी के इस सफ़र में हम से टकराए
ख़ुदाया कर कभी पड़ जाए ऐसा वाक़िआ कोई

तवज्जोह से किसी की था यहाँ आलम बहारों का
मगर जिस रोज़ से उठकर यहाँ से है गया कोई

भुलाई उस ने तो मेरे लिए मेरी ख़ताएँ भी
ख़ुदाया है गिला बस ये न मेरा बन सका कोई

सबब हो कोई वाजिद भी न उस को चाहने का 'श्रेय'
बस उस का होना ला-हासिल नहीं है मुद्दआ कोई

  - Muntazir shrey

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