कोई शिकन उस वक़्त भी झलके न उस रुख़्सार से
ये चाहता हूँ मैं कि बस काटे गला वो प्यार से
अब इंतिहा भी कोई मेरी राह में हाइल नहीं
मैं आगे बढ़ता जा रहा हूँ इश्क़ के मेयार से
हम हैं जहाँ कोई किसी का होके भी होता नहीं
उम्मीद में हैं हम मगर फिर भी विसाल-ए-यार से
लाएगा फिर मुझ को चिता तक बा-मशक्कत ये जहाँ
बोझा उठेगा ही नहीं मेरे ग़मों का चार से
हम को पता भी कब चला है गर्दिश-ए-अय्याम में
जिस वज्ह हम से बिछड़ा है वो वक़्त की रफ़्तार से
ख़ुद को सँभालूँ मैं कि पोंछूँ आँसू अपने यार के
हालत मिरी देखी नहीं जाती मिरे ग़म-ख़्वार से
तब 'श्रेय' उस ने मश्वरा-ए-इश्क़ मुझ से माँग कर
ऐसे किया जैसे दवा माँगे कोई बीमार से
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