जब से उन से दुआ-सलाम हो गया
मेरी ख़ल्वत का इंतिज़ाम हो गया
मुझ से कहता था दिल वफ़ा निभाऊँगा
अब किसी और का ग़ुलाम हो गया
जो हमारी नमक-हलाली करता था
आज वो ही नमक-हराम हो गया
पहले आती थी याद वो कभी-कभी
सिलसिला अब ये सुब्ह-ओ-शाम हो गया
मैं मोहब्बत में सरफ़राज़ था कभी
बैर कर के मैं शख़्स-ए-आम हो गया
हार कर इश्क़ में हयात बार-बार
मिस्ल-ए-फ़रहाद-ओ-क़ैस नाम हो गया
पहले तो दुनिया में मिरा कोई न था
फिर 'मिलन' आलम-ए-तमाम हो गया
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