जहाँ पर शाम से मिलती हुई इक भोर है शायद
वहीं पर उसके मेरे वस्ल का इक कोर है शायद
फ़क़त इक ख़्वाब में हूँ ख़्वाब हूँ या हूँ हक़ीक़त मैं
मेरी परवाज़ में उसका ही कोई ज़ोर है शायद
मैं उसको दूर से देखूँ तो लगता है सुकूँ जैसा
जो ख़ुद में झाँक कर देखूँ तो कोई शोर है शायद
तलब इतनी ज़ियादा है मगर उतनी ही है दूरी
मुझे और उसको बाँधे दिल की कोई डोर है शायद
वो मेरे रंग ले मुझसे मुझे ही रंग देता है
नहीं रंगरेज़ पर सीरत का कोई चोर है शायद
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